मनीष बरोनिया
पसीने से तेल बना के, चमड़ी की बाती कर ली,
और जला के खुद को हमने जिंदगी बसर कर ली…..
किवाड़े, खिड़कियाँ, और दीवारे नहीं है,
सब खुला पड़ा है, कोई चौकीदारें नहीं है…
यूँ बेखबर से, कुछ ढूँढने मत आया करो,
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर….
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
ये बिछी टाईले ही कमरे है हमारे,
इन्ही पर खा कर, चुप चाप सो जाते है…
थके होते है, दिन भर की दिहाड़ी से,
हमें बेवजह जगाने मत आया करो…
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर….
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
थोड़ी ही सही, तुम से कम ही सही,
इज्जत हम भी रखते है, तुम्हारे इस समाज में,
बेटियां हमारी मासूम है, मायूस है,
पर मजबूर नहीं…….
तुम इनके फट्टे चीथड़ो से झाँकने मत आया करो,
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर….
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
जिस तरफ की हवा चली, उस ओर बह जाते है,
तुम्हारे हर जुर्म को यूँ ही सह जाते है,
जलाने का रिवाज़ हमारे यहाँ भी है,
मगर मरने के बाद….
तुम हमें जिन्दा जलाने मत आया करो.
मेरा परिवार सोता है, इस फूटपाथ पर….
तुम यहाँ बार-बार मूतने मत आया करो|
(मनीष बरोनिया, छात्र, केंद्रीय शिक्षण संस्थान, दिल्ली विश्वविद्यालय)