जैनबहादुर
आज के इस आधुनिक लोकतांत्रिक सभ्य समाज में रहते हुए हमारे सामने कभी कभी ऐसी घटनाएँ घट जाती है या फिर घटा दी जाती है जो हमे यह सोचने को मजबूर कर देती है कि क्या हम एक सभ्य लोकतांत्रिक समाज में ही रहते है? ऐसी घटना जिसका परिणाम हमे आज के इस 21वी सदी के वैज्ञानिक लोकतांत्रिक समाज में सामंतवादी सोच की निरन्तरता का एहसास कराती है| यह मामला हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या से सम्बंधित है जो सिर्फ एक आत्महत्या ही नही बल्कि संस्थानिक सोची समझी हत्या है जो हमारे देश के शिक्षण संस्थाओं के लोकतांत्रिक समतामूलक रवैये पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए अपने पीछे कई सारे अनसुलझने वाले संस्थायी सर्वब्यापी सवालों को भी अपने छोड़ जाते है| रोहित वेमूला की आत्महत्या के पीछे जिस प्रकार के कारणों की पृष्ठभूमि जिम्मेदार है उस प्रकार की पृष्ठभूमि देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में आसानी से पायी जा सकती है जिसके लिए अधिकेन्द्र का काम रोहित वेमूला की आत्महत्या ने किया है |
हैदराबाद विश्वविद्यालय द्वारा रोहित के खिलाफ कार्यवाई से लेकर उसकी आत्महत्या के बीच की परिस्थितियों की पड़ताल करने पर पाया जाता है कि इसके पीछे एक सोची समझी साजिश थी जो किसी खास विचारधारा से ओतप्रोत थी| रोहित वेमूला दलित छात्र था जो अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन छात्र संगठन से जुड़ा हुआ था रोहित वेमूला और अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन के अन्य सदस्यों ने विश्वविद्यालय परिसर में “मुजफ्फरनगर अभी बाकी है “ फिल्म दिखाए जाने के समर्थन में विरोध प्रदर्शन किया था और याकूब मेनन की फासी का विरोध किया था जिसको लेकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य छात्रों ने इनका विरोध किया और बाद में चलकर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के एक नेता ने रोहित सहित उसके चार अन्य साथियों पर मारपीट का झूठा आरोप लगाकर विश्वविद्यालय प्रशासन से शिकायत कर दी जिसके कारण विश्वविद्यालय प्रशासन ने रोहित सहित उसके चार अन्य साथियों को हास्टल से बाहर निकालते हुए विश्वविद्यालय के किसी भी सार्वजानिक स्थान पर जाने से रोक लगा दिया शिवाय कक्षा और अकेडमिक बैठकों के|
उस क्षेत्र के सांसद और केन्द्रीय राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने रोहित और अम्बेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन की गतिविधियों को अतिवादी, देशद्रोही करार देते हुए मानव संसाधन मंत्रालय को पत्र भेजा कि विश्वविद्यालय में अराजकतावादी अतिवादी माहौल बना हुआ है जो ठीक नही है इसको सुधारा जाय| अगर बंडारू दत्तात्रेय विश्वविद्यालय में होने वैचारिक गतिविधियों को राष्ट्रद्रोही करार देते है तो देश की पंचायत संसद में होने वाली बहस को क्या कहेंगे इसका निर्धारण भी उनको करना चाहिए | रोहित और उसके चार अन्य साथियों ने विश्वविद्यालय द्वारा अपने प्रति लिए गये निर्णयों का मुखर विरोध करते हुए हास्टल के बाहर टेंट लगा लिया |
रोहित लगातार विश्वविद्यालय प्रशासन पर आरोप लगता रहा कि यहाँ दलित छात्रों के साथ भेदभाव किया जाता है जिसको लेकर उसने कुलपति को पत्र भी लिखा था कि विश्वविद्यालय प्रशासन को प्रवेश के समय दलित छात्रों को जहर की गोली और रस्सी मुहैया करा देनी चाहिए जिससे दलित छात्र अपनी आत्महत्या कर सके|रोहित का यह पत्र सोचने को मजबूर करता है विश्वविद्यालय दलित छात्रों के साथ भेदभाव करने की परम्परा को लिए हुए था जिसका रोहित द्वारा कई महीनो से विरोध चल रहा था लेकिन विश्वविद्यालय की सामंतवादी रवैये के आगे रोहित की एक भी न चली वह अपने खिलाफ होने वाली कार्यवाही को जातिवादी राजनीति से प्रेरित होने का निरंतर आरोप लगा रहा था |
रोहित की आत्महत्या को जातिवादी चश्मे से देखने को मना करने वाली मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी स्वयं प्रेस कांफ्रेंस में झूठा बयान देती है कि रोहित के खिलाफ जिस विश्वविद्यालय कार्यकारिणी की परिषद ने निर्णय लिया था उसका अध्यक्ष स्वयं दलित था और हास्टल का वार्डन भी दलित था| अगर रोहित की आत्महत्या को लेकर विरोध प्रदर्शन करना जातिवाद है तब यह भी सवाल होना चाहिए कि क्या किसी की जाति का खुलासा करना जातिवाद नही है ?
अगर विश्वविद्यालय में ‘’मुजफ्फरनगर अभी बाकी है ‘’फिल्म दिखाया जाना या फिर याकूब की फासी का विरोध करना देशद्रोह है तो फिर स्वामी सुब्रमण्यम,योगीआदित्यनाथ,संध्वी प्राची जैसे लोगों द्वारा दिए जाने वाले बयानों को क्या कहा जाएगा? यदि याकूब की फासी का विरोध करना राष्ट्रद्रोह है तो देश में बहुत सारे संवैधानिक,गैरसंवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग भी देशद्रोही है क्योंकी इन्होने भी याकूब की फासी के समय इसका विरोध किया था|वैसे तो अब देश की सरकार को एक मानक का निर्धारण कर ही देना चाहिए कि कौन सी घटना जातिवादी ,नक्सलवाद की श्रेणी में आएगी,कौन सी घटना देशद्रोह या राष्ट्रद्रोह कही जाएगी या फिर किस घटना पर सियासत की जाएगी|
जेएनयू जैसे सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय को जब जेहादियों ,नक्सलवादियों का गड़ बोला जाता है और हरियाणा में दलितों के साथ होने वाली हिंसा की तुलना जब कुत्ते पर पत्थर मारने से की जाती है तब देश की सत्ता इनके खिलाफ कुछ नही करती है और ना ही इनको राष्ट्रद्रोही कहा जाता है लेकिन जब विश्वविद्यालय में जब छात्रों के बीच वैचरिकी संघर्ष होता है तब उनके साथ अमानवीय तरीके से पेश आते हुए हास्टल से बेदखल कर दिया जाता है विश्वविद्यालय के सार्वजानिक स्थानों पर जाने से रोक लगा दिया जाता है,यह कैसा लोकतंत्र है ?जहाँ पर लोगों के साथ इंसानियत के आधार पर नही बल्कि पहचान के आधार पर निर्णय लिए जाते है |
रोहित द्वारा लिखे गये पत्र की यह लाईन कि ‘’आदमी की कीमत उसकी तात्कालिक पहचान और निकट संभावनाओ तक सिमित हो गयी है, एक आदमी को कभी दिमाग से नही आका जाता है ‘’समाज के ऐसे तबके की ओर इशारा कर रही है जिसके पास सामर्थ्य है क्षमता है लेकिन उसकी कोई सामाजिक पहचान नही है या फिर बनाने नही दिया गया क्योंकी उनको ऐसा करने का अवसर नही दिया गया|इस बात का अनुभव रोहित ने विश्वविद्यालय में भी किया जिसने उसकी भावनाओं को आहत किया और अगस्त से लेकर जनवरी तक अपने खिलाफ लिए गये निर्णयों के विरुद्ध लड़ते हुए रोहित को जब यह लगने लगा कि सत्ता या राज्य को उपकृत करने वाले विश्वविद्यालय में उसे इंसाफ नही मिल सकता है तो उसके इंसाफ की उम्मीदें अपना धैर्य खोने लगी और इस धैर्य खोती इंसाफ की उम्मीदों से उसने एक नये संघर्ष का आगाज अपनी आत्महत्या से कर दी |
रोहित की आत्महत्या सिर्फ एक आत्महत्या ही नही है यह देश के विश्वविद्यालयों के कार्यप्रणालीयों,स्वायतता और निर्णयन की क्षमता पर भी सवालिया निशान लगाती है विश्वविद्यालय जोकि आजादखयाली और खुले दिमागों का रंगमंच होता है लेकिन राज्य या सत्ता के हस्तक्षेप ने शिक्षण संस्थाओं की स्वतन्त्रता का इस प्रकार से गला घोट रहे है उससे विश्वविद्यालय सर्जनात्मकता का रंगमंच न रहकर सिर्फ कटपुतली बनकर रह गया है जिसका रिमोट कंट्रोल सत्ता के हाथ में रहता है | इस प्रकरण में विश्वविद्यालय की गतिविधियों पर सवाल खड़े करने वाले बिंदु है कि आखिर क्यों विश्वविद्यालय इतने दिनों तक रोहित के मामले को लटकाए रखा ?या विश्वविद्यालय किसी के निर्णय का इंतजार कर रहा था | इन मामलों से पता चलता है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय रोहित के मामलें को लेकर कोई संवाद नही करना चाहता था जो विश्वविद्यालय परिसर की संवेदनहीनता को दर्शाता है जिसको पाउलो फ्रेरे ‘’विश्वविद्यालय मौन संस्कृति ‘’कहते है जब किसी शिक्षण संस्थान में संवाद नही स्थापित होता है तो उस शिक्षण संस्थान में नवाचार का सृजन नही हो पाता है क्योंकी तब यह दिमागों को जड़ बनाने लगता है |
रोहित वेमूला की आत्महत्या से देश की सरकार को सबक लेना चाहिए सिर्फ भावुक होने से और यह कहने से कि ‘’कारण अपनी जगह होंगे राजनीति अपनी जगह होगी लेकिन सच्चाई यह है कि माँ भारती ने अपना लाल खोया है ‘’से रोहित के आत्मा को शांति नही मिलेगी जरूरत है इस आत्महत्या के पीछे काम करने वाली पूरी व्यवस्था को पहचानकर उसका जड़ से उन्मूलन करने की जिससे शिक्षण संस्थाओं में लोकतांत्रिक समतामूलक माहौल स्थापित हो सके ताकि भविष्य में कार्ल सागान जैसा बनने का सपना देखने वाला अगला रोहित वेमूला आत्महत्या न करे|आखिर कब तक ऐसी व्यवस्था रहेगी जो लोगों को आत्महत्या करने को मजबूर करती रहेगी ?कब तक लोगों को भेदभाव की नजर से देखा जाएगा ?रोहित न सिर्फ स्वयं को मार गया बल्कि हम सबको मार गया इस पूरी व्यवस्था को मार गया जो जड़ता से ग्रसित है, मनुवादी सोच से ग्रसित व्यवस्था के खिलाफ रोहित की लड़ाई को आगे बढ़ाने की जरूरत है और तब तक बढ़ाना है जब तक इंसाफ न मिल जाय. यही रोहित के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी |
(जैनबहादुर, एक विध्यार्थी हैं, जौनपुर ,यू पी से )