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नमामि गंगे के सफाई कर्मचारियों से २०१९ में कोरोना महावारी आने से पहले और बाद में बात हुई. चारों तरफ घाटों पे आपको नमामि गंगे का विज्ञापन, उसके साथ आई.एल.ऍफ़.एस. का पोस्टर दिख जायेगा.
इन कर्मचारियों का कहना है कि, उन्हें ७००० नकद, प्रोविडेंट फण्ड कट कर मिलता है. और ये सब ठेके पर काम करते हैं, जिसे नमामि गंगे कॉन्ट्रैक्ट पर दिया हुआ है. इन्हें सेफ्टी के लिए दस्ताने, बूट तो दूर की बात है, ये पहले खुद से ही पुराने कपडे बटोर कर, उसमें हाथ से ही कचड़ा बीनते थे. फिर हाथ में दो बड़ा कार्ड बोर्ड लेकर करने लगे.
महीने में चार दिन छुट्टी, जो कि ऐसे भी हर व्यक्ति को रविवार या कोई वार में मिलती ही है. अगर कोई बीमार पड़े तो उसकी हाजरी कट जाती है, और कोई मेडिकल सुविधा इनके लिए उपलब्ध नहीं है. जिस कंपनी के लिए ये काम करते हैं उन्होंने इनके लिए आयुष्मान या कोई भी मान सम्मान की वयवस्था नहीं रखी है. इन्हें २० तारीख के बाद तन्खाह मिलती है, और वो भी दो दो महीने के बाद. कभी कैश कभी बैंक के खाते में.
बहुत लोगों को निकाला भी जाता है, और उनका प्रोविडेंट फण्ड का पैसा जो कट रहा है, उसका अकाउंट नंबर भी उन्हें नहीं दिया जाता. सवाल पूछने पर उन्हें निकल दिया जाता है. इनसे ओवर टाइम भी कराया जाता है, बिना अतिरिक्त भुगतान के.
गुडिया जो की हरिश्चंद्र घाट पे काम करती हैं, आजकल दो दो शिफ्ट में कर रही हैं, क्यूंकि उनके पति को पीछे से गाय ने मार दिया, और वो अब काम पे नहीं आ सकते.
कोरोना के पहले और बाद ये उनमें से हैं जो कि जरूरी काम कर रहे हैं, चुप चाप, बिना कुछ बोले कहे. क्यूंकि मुंह खोलने पर नौकरी जाने का खतरा है, और इनका कोई अपना यूनियन भी नहीं है. मोदी जी के नाम पर लोग नमामि गंगे में काम करने आये थे, अब वो उनका विज्ञापन प्रचार, देख कर तंग आ गए है. जो पैसा इन पर, इनके परिवार पर खर्च होना था, वो सरकार विज्ञापन में लगाई जा रही है.
अधिकतर लोग वाल्मीकि समाज से हैं, और कुछ मल्लाह और डोम समाज से भी हैं. पर गौर करने वाली बात ये है, कि इनके सुपरवाइजर और उनके मालिक अधिकतर ब्राह्मण और राजपूत समाज से आते हैं. कोई निलेश मिश्रा तो कोई सिंह, तो कोई तिवारी. सुपरवाइजर की योग्यता कहाँ से तय हुई थी? कहीं विज्ञापन आया था, रोजगार का? क्या हर जगह अपने जान पहचान वालों को आर्डर चलाने की नौकरी दे दी गयी ?
क्या आज के समय में इन्हें मात्र ७००० तन्खाह मिलने चाहिए, वो भी मेडिकल और सेफ्टी की वयवस्था के बगैर? जिस कंपनी के लिए वो काम कर रहे हैं, आई.एल.ऍफ़.एस. उस पर करोड़ों की हेर-फेर का मामला सवयं सरकार चला रही है और दूसरी तरफ हर जगह बनारस के घाट पे उसे ही प्रमोट कर रही है. ये स्कैम कोई छोटा मोटा नहीं है, जिसे २०१७ में उजागर किया गया था, जो कि ९१००० करोड़ रूपए का है ( 31 मार्च २०१८ तक का आंकड़ा ). उसमें से एल.आई.सी, एस बी.आई और सेंट्रल बैंक ऑफ़ इंडिया का ४० प्रतिशत पैसा है. मतलब कंपनी ने पूरी जनता का पैसा, सरकारी संस्थानों से लेकर गोल मोल कर दिया, और कहाँ कहाँ की टेंडर उठा कर, और पैसा खा रहे हैं, जिसमें से ले दे के सफाई कर्मचारी को मिल रहा है मात्र ७००० रूपए.
अब ९१००० करोड़ उधार और ७००० रूपए नकद. आप हिसाब लगाइए. बकाया पैसा मिले न मिले लेकिन शायद आई.एल.ऍफ़.एस को यहाँ मोक्ष का रास्ता जरूर दे रही है, मोदी सरकार. अब सरकार नहीं, तो कम से कम लोग, जागरूक बनारस की जनता एक काम तो कर ही सकती है, घाट पे उसके हर नाम पर देश द्रोही लिख दे, जिसने देश की जनता का पैसा लूटा है.