सुरेश जाधव
सन् १९०० में ब्रिटिशों ने हिनुस्तान में छोटी-बड़ी संस्थानों (राज्य) को हटाकर अपनी हुकूमत कायम की. उस दौरान किसान, आदिवासी, भटके विमुक्त जनजाति और पिछड़े वर्गों को बड़े पैमाने पर सताया गया. उसके परिणाम सवरूप अंग्रेजों के खिलाफ १८५७ के उठाव में बिरसा मुंडा, तांत्या भील और उमाजी नायक के नेतृतव में विद्रोह उमड़ा. लेकिन अंग्रेजों के द्वारा इन आवाजों को दबाया गया. इसी को मद्दे नजर रखते हुए भविष्य में ऐसी परिस्थिति का उद्भव न हो इस लिए बॉम्बे प्रेस्देन्शिअल स्टेट में रहने वाले १९६ जनजातियों को गुन्हेगार ठहराया गया और अंग्रेजों ने १८७१ में भटके विमुक्त जनजातियों को ‘क्रिमिनल ट्राइबल एक्ट’ के अनुसार सामाजिक तथा आर्थिक उन्नति करने हेतु , ५२ सेटलमेंट की शुरुवात की.
लेकिन ऐसा न होकर इस एक्ट के अनुसार लोगों को कैद करके उन लोगों पर जुल्म, अत्याचार होने लगा. जो भटके विमुक्त समाज के लोग इस सेटलमेंट के बाहर रह रहे थे , उनके लिए किसी गाँव में जाते ही गाँव के पुलिस पाटिल, कोतवाल के पास से उस गाँव में दाखिला लेना पड़ता था, साथ ही कितने लोग उस गाँव में प्रवेश करेंगे और कौन कौन सी चीजें, जानवर इन सब की जानकारी देनी पड़ती थी.
ऐसी परिस्थिति में भटके विमुक्त जनजातियों का बड़े पैमाने पर शोषण हो रहा था. १५ अगस्त १९४७ को भारत देश को आज़ादी मिली, फिर भी ब्रिटिशों के गुन्हेगारी जमात कानून के अनुसार इस समाज को गुलाम गिरी में रहना पड़ा था. आगे चलकर अनंत अयंयगर इनके अध्यक्षता में सन १९४९ अधिनियम कानून बर्खास्त करने के लिए एक कमिटी नियुक्त कि गयी. इस कमिटी ने परिपूर्णता रूप से अभ्यास के अनुसार सन १९५० में अपना अहवाल भारत सरकार को सौंप दिया. इस अहवाल में इन जन जातियों के लिए अलग से फण्ड आरक्षित कर १९ साल तक इस फण्ड का लाभ देने की मांग की. तत्कालीन भारत सरकार ने इसे मंजूर किया और ३१ अगस्त १९५२ को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरूजी और तत्कालीन महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री यशवंतराव चाहवान जी ने पुराना अपराधी अधिनियम बर्खास्त कर, हबिचुअल ओफेन्देर्स एक्ट के अनुसार ‘नोटिफ़ाईड ट्राइब को डी नोटिफ़ाईड ट्राइब’ के नाम से लागू किया और इस समाज को ट्राइब आदिवासी कहकर पुकारा गया.
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लेकिन हकीकत में आदिवासियों को किसी भी योजनाओं का लाभ इन भटके विमुक्त जनजातियों को न मिल सका. १९५२ में सोलापुर की सेटलमेंट की तारों को तोड़कर केंद्र और महाराष्ट्र की सरकार सही मायने में भटके विमुक्त को रिहा कर उनकी आज़ादी का ऐलान किया था. मगर इस बड़े फैसले के बाद भी, पुनरनिर्मिती के कोई मजबूत कदम नहीं उठाये गए.
इस समाज को ट्राइब कहकर पुकारा लेकिन कोई भी ट्राइबल निर्धारित योजना नहीं दी. केंद्र की तरफ से कोई निति जमीनी नहीं है. विमुक्त जाति और नोमेडिक ट्राइब (VJNT) को आरक्षण देकर भटके को और भटकाया गया. आरक्षण केवल महाराष्ट्र में सिमित रहकर पढाई और नौकरी में उपयोग होता है. उस आरक्षण पर भी कठोर नियम लगाये. जैसे की पढाई के क्षेत्र में गैर अपराधिक प्रमाणपत्र की अनिवार्यता और नौकरी में जाति प्रमाणपत्र १९६१ का सबूत. जो समाज असल में पढ़ा लिखा ही नहीं, उस समाज के पास किसी प्रकार के कागजात या पत्र कैसे मिलेगा. फिर ये १९६१ के सबूत को कहाँ से पेश करेंगे ? इसे तो कहते हैं मुंह दबाकर घुसे मारना.
उसके बाद कई कमिटियाँ, आयोग बनाये गए, जैसे १९५५ में कालेलकर आयोग, अगरवाल आयोग, न्याय. बापट आयोग स्थापित किये गए. लेकिन इन कमिटी और आयोगों ने उपरोक्त विषयों पर अपनी सिफारिश सरकार को दिया लेकिन कभी गंभीरतापूर्वक इस पर ध्यान नहीं दिया सरकार ने.
यह भटके विमुक्त समाज आज भी ऐसे ही जीती है. इनमें- कैकाडी, कतारी, पात्रोड़, जोशी. वैदू. जोगी, लोहार, पारधी, बंजारा, काशिकापड़ी, धनगर, चित्तोडिया, कंजरभाट, रामोशी, नंदिवाले हैं. इन समाजों की स्थिति बड़ी दयनीय है. ये उस समाज से हैं जो आजादी की लड़ाई में सबसे आगे थे. संस्कृति से प्रेम करने वाले और देवी-देवताओं को पूजा कर अपना गुजर बसर करना इनकी जिंदगी रही है. ऐसा रहकर भी भटके विमुक्त का जब-जब उल्लेख होता है, तब-तब सिर्फ चोर और गुन्हेगार रूप की तस्वीर लोगों के सामने आती है.
सचमुच अगर यह भटके विमुक्त चोर और डकैत है तो फिर आज फकीर क्यों? सच हमारे आमने-सामने खड़ा है. सभी चीजों के बारें में जब सोचते हैं तो देश में राजनैतिक बदलाव हुआ है, उसमे भटके समाज का रोल भी महतवपूर्ण है.
इसी कारण हमारे देश के प्रधानमंत्री जी जो खुद को प्राधान सेवक बताते हैं, उनसे एक सवाल पूछना चाहता हूँ, आखिर कब भटके-विमुक्त के अछे दिन आयेंगे .
(सुरेश जाधव टाटा सामाजिक विज्ञानं संसथान में क्रिमिनोलॉजी और जस्टिस सेंटर में एक फेलो रेस्रार्चेर हैं जो की घुमतु ट्राइब के साथ लातूर, महाराष्ट्र में काम कर रहे हैं )