Mon. Dec 23rd, 2024

बदलने लगे है विज्ञापन फिल्मों के नारी चरित्र

Adweek से साभार

परिवर्तन प्रकृति का नियम है । यह परिवर्तन हमें साहित्य, सिनेमा,कविता,नाटक, मीडिया आदि विधाओं में धीरे धीरे ही सही पर मिल रहा है । टेलीविजन की पहुँच आज सूदूर तक हो गयी हैं । जाहीर है केबिल ने भी उन तक दस्तक दे ही दी है। किसी ट्रेन में बैठे हुए जब हम किसी प्लेटफॉर्म के नजदीक वाली झुग्गी झोपड़ी को देखते है तो पाते है कि लगभग हर झोपड़ी के ऊपर डिश टीवी का एंटीना लगा है । जाहीर है लोगो ने अपने मनोरंजन के माध्यम का चुनाव अपनी अभिरुचि के आधार पर ही करता होगा । लेकिन वह किसी भी कार्यक्रम को चुने, एक तत्व उसमें समान है वो है विज्ञापन । तो ऐसे में विज्ञापन की चर्चा अनिवार्य हो जाती है। विज्ञापन मानव मस्तिस्क में बदलाव लाने की शक्ति रखता है। एक ताजा उदाहरण की बात करें तो, देश के प्रधानमंत्री द्वारा पेटीएम का किया गया प्रचार और उसको प्रयोग में लाये जाने वाले उपभोक्ताओं की संख्या जानना महत्वपूर्ण हो जाता है। देश में बड़े से बड़ा नेता,अभिनेता, अभिनेत्री बिना किसी प्रोडक्ट को प्रयोग में लाये उसके प्रचार को करते हुए कितना सही कर रहे है यह सोचनीय प्रश्न है ? विज्ञापन में महिला चित्रण को लेकर हमेशा से ही विवाद रहा है। एक सेक्स सिंबल के तौर पर प्रयोग में लाई गयी स्त्री ही हमे विज्ञापन में दिखती है । यह एक कथन के तौर पर आज भी प्रयोग हो रहा है, लेकिन अब इसे जाँचने की भी जरूरत हो गयी है। क्योकि आज के विज्ञापनों में नए प्रतिरोधी स्वर इस ओर बढ़ते हमे दिखाई दे रहे हैं जो स्टीरिओटाइप को तोड़ रहे है। राजनीति, प्रशासन, समाज, उद्योग, व्यवसाय, विज्ञान-प्रौद्योगिकी, फिल्म, संगीत, साहित्य, मीडिया, चिकित्सा, इंजीनियरिंग, वकालत, कला-संस्कृति, शिक्षा, आई० टी०, खेल-कूद, सैन्य से लेकर अंतरिक्ष तक महिलाओं ने अपने आप को पहुचाया है जिसका श्रेय सर्वप्रथम उन्हे ही मिलना चाहिए।
बात संचार माध्यमों के जरिये उनके प्रदर्शन की करें तो चित्रण को जाँचने परखने संबंधी कई शोध हुए है जिनमे पाया गया कि संचार माध्यमों के जरिये महिलाओं की नकारात्मक छवि को अधिकतर पेश किया गया है । फिर वो चाहे टीवी सीरियलों में हो फिल्मों में या फिर खुद प्रिंट मीडिया में ही क्यो न हो । दूसरी तरफ, ऐसा नहीं है कि इन माध्यमों में सिर्फ महिला चित्रण सिर्फ नकारात्मक छवि ही पेश करता है । बीते सालों में नजर डालें तो एक से बढ़कर एक बड़ी फिल्में महिलाओं को नायक के रूप मे पेश करती हुई हमे मिल जाएगी (सिर्फ इस क्षेत्र में प्रयोग के तौर पर थोड़ी छूट देकर) । क्वीन,मेरी कॉम,, दंगल इसके प्रमुख उदाहरण है। वही कई ऐसी फिल्में भी है जो महिलाओं को केवल एक सेक्स सिंबल के तौर पर ही पेश करती दिखी है। बीते कुछ सालों की प्रमुख कॉमेडी फिल्में इनका भी उदाहरण है। विज्ञापनों फिल्मों मे उन्हें सेक्स सिंबल और वस्तु से ज्यादा कुछ और देखा ही नहीं गया। ऐसे विज्ञापनों में देखें तो महिलाएं त्वचा निखारती हुई, गौरेपन का क्रीम मलते हुए, साबुन रगड़ते हुए, कृत्रिम बालों को फलां-फलां तेल लगाकर लहराते हुए अर्थात सिर से पैर तक केवल देह ही देह का प्रदर्शन करते हुए दिखती थी और आज भी दिख रही है। मन, बुद्धि, कौशल व योग्यता कहीं दिखाई नहीं देती । कुछ शोष निष्कर्ष बताते हैं कि ऐसी महिला का चित्रण केवल उसके दैहिक शोषण को ही आमंत्रित करता है।और ऐसे विज्ञापनों का निर्माण करना विज्ञापन निर्माता मार्केट का दवाब मानते है ।इन सब के बावजूद विज्ञापन का बदलते स्वरूप में डाबर, फॉरेस्ट एसेंसियल,टीबीजेड गारलैंड डाबर वाटिका हेयर ऑइल,फैबले,एरियल वॉशिंग पावडर,टाइटन,हवेल्स,तनिष्क,फास्टट्रैक जैसे ब्रांड के चुनिन्दा विज्ञापनों को देखते है तो महिलाओ की एक सकारात्मक छवि हमें देखने को मिलती है ।
आज 21वीं सदी के बदलते माहौल में विज्ञापन में स्त्री के विषय भी बदल रहे है । बीबा जो एक महिला केन्द्रित कपड़ो का एक बड़ा ब्रांड है उसने अपने विज्ञापन बीबा द चेंज कन्वेंसन में दिखाता है की एक परिवार अपने बेटे के लिए लड़की देख कर वापस घर आता है, लड़की पसंद भी है। और वहीं परेशान सी उसकी पुरानी खयालातों वाली माँ लड़के के पिता से कहती है की कि शादी से पहले लेन देन की बात तो कर लिए हो न, तो लड़के के पिता का ये कहना कि हाँ हुई है न लेन देन की बात, गहने, कार, 10 लाख रुपये नकद, देने की बात हुई है । इस देने शब्द को सुनते ही उसकी माँ के चेहरे के भाव साफ तौर पर समाज में दहेज को लेकर बनी धारणा को आसानी से चित्रित करते है, वहीं लड़के के पिता का यह कहना कि उनकी हीरे जैसी बेटी को लेना है इतने देना तो बनता है माँ ।और आखिरी में दादी माँ का ये यह मानना ही कि चलो यह भी अच्छा है, महिलाओं के भविष्य की दिशा में बदलाव के संकेत ही तो है। बीबा ने ऐसे ही कई और विज्ञापन फिल्मों का निर्माण किया है जो महिलाओं से संबन्धित पुरानी टूट रही रूढ़ियों को सशक्त रूप में पेश कर रहा है।
तनिष्क ज्वेलर्स के एक विज्ञापन पर अगर गौर करें तो पाते है एक लड़की जिसकी शादी होने वाली है वो गहनों की खरीद के लिए एक शो रूम मे हैं, उसकी दादी को जब वह अपने गहनों की पसंद कर दिखाती है तो दादी का यह कहना की तू ये शादी न कर, लड़की कहती है क्यो? दादी का नए जमाने का वहीं पुराना डायलाग, एक तो तूने प्यार किया ऊपर से पंजाबी मुंडे से । सो बोरिंग । कोई साउथ का होता तो दो तरह के गहने पहनने को मिलते । लड़की का पलटकर दिया यह जवाब कि दादी मैंने तो चुन लिया अभी आप छुटकी मनाओं आज शादी के स्टीरिओटाइप को तोड़ते हुए प्रतीत होता है । छुटकी और फैमिली का एक्स्प्रेशन वाकई आज के बदलते सामाजिक परिवेश के हिस्से से ही लिया हुआ दिखता है। भले ही यह यही उच्च वर्गों के पारिवारिक माहौल में ही क्यो न हो। तनिष्क के कई ऐसे विज्ञापन शादियों के पुराने रिवाजों को तोड़ते हुए दिखाये जा रहे हैं । हालांकि तनिष्क अपने ज्वेलरी को बेचने के साथ एक खुद रिवाज बनाते हुए भी हमें दिखता है।
एयरटेल दूरसंचार का एक विज्ञापन आपको महिला के बॉस होने की कहानी भी दिखाता है जिसमे वह एक सशक्त महिला है जो कंपनी के पुरुष कर्मचारी, जो कि उसका पति भी हैं। उसको पूरा काम खत्म होने पर ही घर जाने का आदेश देकर घर चली जाती है। घर जाकर उस महिला बॉस का अपने पति को फोन करना और उसके लिए खाना बनाकर वीडियो भेजना, महिला के दूसरे गृहिणी रूप को पेश करता है। महिलाए हर क्षेत्र में अपनी जिम्मेदारी का एहसाह इस विज्ञापन के जरिये कराती हुई नजर आएगी।
अमूल दूध का के विज्ञापन जिसका नाम सेलिब्रेट विमेन पावर जिसमें एक लड़की जो कंपनी बॉस है उसकी माँ अपने घर की बॉस हैं(अमूमन हर घर की माँ होती है) । माँ का यह कहना कि कंपनी का सारा बोझ तूने ही तो उठा लिया लिया है, तो बेटी का जवाब हाँ माँ, तुमसे ही तो सीखा हैं । फिर माँ बेटी का एक ग्लास में दोनों का दूध पीना एक साकारात्मक चित्रण ही तो हैं । अपने-अपने क्षेत्रों में दोनों को शक्ति की जरूरत हैं उस शक्ति का सिंबल अमूल दूध हैं ।
जेंडर को लेकर हो रही हिंसा के खिलाफ पूरे विश्व में एक अभियान चलाया जा रहा हैं । उसी अभियान के तहत बने एक विज्ञापन जिसका नाम वीवॉल्व-लेट द गर्ल बी… है । इस विज्ञापन को देखते हुए हमारे मौजूदा समाज की एक तस्वीर जिसमें महिलाये होटल,सड़कों, गाड़ी,कैंटीन,जिम, घर ऑफिस,मॉल आदि जगहों पर अपने कपड़ो और अपने बॉडी को छिपा कर रखने संबंधी सीख उन्हे आस पास के लोगो द्वारा दी जाती दिखती है वही इसी विज्ञापन के उनके इन्ही जगहों पर बिना डरे,बिना असहज हुए बेधड़क घूमने,रहने की आजादी पाते हुए दिखाया गया है। बशर्ते वो इस पुरुष वर्चस्व वाले समाज का डट कर सामना करें तब ।
दीपिका पादुकोण वोग पत्रिका के विज्ञापन फिल्म में खुले तौर पर कहती है कि माय बॉडी, माय माइंड,माय च्वाइस,मेरा साइज जीरो रहे या पचास यह मेरी च्वाइस है, मैं शादी करू या न करू मेरी च्वाइस, मैं शादी से पहले सेक्स करू या बाद में मेरी च्वाइस, मैं टेम्पररी प्यार करू या हमेशा के लिए यह मेरी च्वाइस है,मैं एक लड़के से प्यार करू या लड़की से यह मेरी च्वाइस है। माथे पर बिंदी,हाथों में रिंग,नाम के साथ सरनेम मैं रखू या न रखू मेरी च्वाइस । दीपिका अपनी इस विज्ञापन फिल्म में एक बड़ा संदेश उस पुरुष प्रधान समाज को आड़े हाथो लेते हुए उन महिलाओं तक पहुचा रही हैं जो समाज की बंदिशे तोड़ना तो चाहती है लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाती ।
कुल मिलाकर वर्तमान दौर में जहां एक तरफ पुरुष के प्रयोग आने वाले कंडोम और बॉडी स्प्रे जैसे प्रोडक्ट के विज्ञापन में महिला का प्रयोग सेक्स और कमोत्तजना पैदा करने के लिए किया जा रहा है वहीं ऐसे सामाजिक संदेश वाले विज्ञापन हिन्दी सिनेमा के समानान्तर दौर की याद दिला रहे हैं । लेकिन सामाजिक प्राणी होने के नाते हमारी एक जिम्मेदारी यहाँ जरूर बनती हैं कि ऐसे विज्ञापनों के प्रति हमारा कडा रूख प्रदर्शित हो । ऐसे विज्ञापनों के निर्माताओं तक भी यह आवाज जानी चाहिए कि प्रोडक्ट को बेचने के लिए स्त्री देह को बेचना बहुत ही वाहियात काम है। यह समाज विरोधी भी है।
किसी परिवार में एक साथ बैठकर टेलीविजन देख रहे दर्शकों के सामने जब ऐसी नग्नता भरे विज्ञापन सामने आते है तो रिमोट का बटन दबाने के अलावा कोई और दूसरा रास्ता नहीं बचता । मुसीबत तो तब और मालूम देती है जब बदले हुए चौनल में भी ऐसे ही विज्ञापन चलते हुए हमें फिर से देखने को मिल जाते है। थियेटर में फिल्मों के देखने के लिए बने कानून और कानून के रक्षक जिस तरह का वर्तमान रवैया अपना रहे है उनसे उम्मीदें और बढ़ जाती है कि इस ओर भी अपना ध्यान दें । फिल्मों में सेक्सुयलिटी ढुढ्ने से ज्यादा जरूरी अब टेलीविजन विज्ञापनों द्वारा बाटी जा रही गंदगी को साफ करना जरूरी सा लगता हैं । मेरी नजर में आज कल जैसी हिन्दी की फूहड़ फिल्में बन रही है उनका असर देखने के 2-3 घंटे बाद उतर ही जाता है पर ऐसे विज्ञापनों का हर 5 मिनट में प्रसारण का असर 24 घंटे रहने से खतरा बढ़ जाता हैं । ऐसे में एक स्वच्छ समाज की अधूरी कल्पना मात्र ही रह जाएगी ।

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