बैसवारा क्षेत्र के रायबरेली और आसपास के इलाकों में ज़मीन की माप के हिसाब से इस क्षेत्र में सीमांत किसानों की संख्या अच्छी-खासी है। सीमांत किसान वो हैं जिनके पास 2.5 एकड़ भूमि या 1 हेक्टेयर से कम है। उनमे से कुछ गांव में रहकर खेती करते हैं और कुछ बाहर रहकर खेती देखते हैं। अधिया और बटाई पर खेती देने का प्रचलन इन ज़िलों में नया नहीं है, जो स्वयं खेती नहीं कर सकते वे अधिया-बटाई में उपाय तलाशते हैं। खेती करने वाला इस बात को अच्छे से जानता है कि सन्देशन खेती नहीं होती है, मतलब आपको खेती करनी है या करवानी है तो अपनी उपस्थिति गांव-जवार में दर्ज कराते रहिये। इसलिए अधिया-बटाई पर खेती देने वाले भी खेत-खलिहान आना जाना लगाए रहते है।
संसाधनों की बात करें तो खाद, बीज, मज़दूर, पानी कहां से और कैसे आएगा यह अक्सर प्लानिंग से ही किया जा सकता है, इन सबकी भी अपनी ही डाइनामिक्स है। क्यूंकि बरसात तो समय पर कम ही होती है इसलिए नहर, ट्यूबवेल पर निर्भरता बढ़ जाती है। नहरों का जाल हर जगह पर नहीं है और न ही ट्यूबवेल हर मझोले किसान के पास हैं। ऐसे में दूसरे के ट्यूबवेल से सिंचाई एक विकल्प बन जाता है, आसपास में जिसके खेत हैं वह प्रति घंटे की दर से ट्यूबवेल से पानी लगवाने के पैसे देता है।
फसल बुआई के समय ज़्यादा प्रेशर होता है, जिससे किसानों को कई दिन इंतज़ार करना पड़ता है और यदि बिजली ठीक से न आये तो यह समस्या और विकट हो जाती है। इन सबके बावजूद बेमौसम बरसात, बीजों की ख़राब गुणवत्ता और नीलगायों के झुण्ड या अन्य जंगली जानवर फसल को ख़राब कर देते हैं। इन कारणों से जरुरत से कम अनाज होता है और मूलधन भी डूब जाता है। खेती-किसानी का यह कुचक्र मानव-निर्मित है और इसके रास्ते भी यहीं से जाते हैं।
ट्यूबवेल लगवाने का खर्च करीब साठ से अस्सी हज़ार रूपए के बीच आता है और उसमें भी कुछ पेचीदगियां हैं। दूसरा खेती की लागत पूरा करने और साथ-साथ घर चलाने, बच्चों की पढाई-लिखाई में किसान अक्सर कहीं न कहीं से कुछ कर्ज़ ले लेते है। घर में कोई बीमारी-हज़ारी हो गयी तो कर्ज़ की रकम बढ़ सकती है। इस कर्ज़ की भरपाई फसल की उपज पर निर्भर करती है, अगर फसल अच्छी न हुई तो एक कर्ज़ को चुकाने के लिए दूसरा कर्ज़ लेना पड़ता है। सूदखोरी का कुचक्र यहीं से पनपता है और इसके चक्कर में काफी लोग अपनी ज़मीनें और संसाधन गंवा चुके हैं। रायबरेली और आसपास के ज़िलों में अभी किसानों की आत्महत्या के मामले सुनाई नहीं पड़ते लेकिन यदि स्थितियों में बदलाव न हुआ तो यह दुर्दिन यहां भी देखने पड़ सकते है।
एक और ध्यान देने वाली बात यह है कि सूखा-राहत के लिए जो राशि आवंटित हुई थी, वह कई जगहों पर पहुँच ही नहीं पायी. बैसवारे के कई क्षेत्रों में बात तो कई बार उठी लेकिन पैसा नहीं पहुंचा। किसान को असीम धैर्य का स्वामी मानकर इंतज़ार में बैठाये रहना बेहद दुखद और घृड़ित काम लगता है। इससे उसकी जीवनशैली इस तरह से प्रभावित होती है कि वर्तमान तो रुकता है भूत का भर भविष्य को दबाने लगता है।
योगी सरकार ने एक लाख रूपए तक का क़र्ज़ माफ़ करके कुछ राहत देने की कोशिश की है। अट्ठारह घंटे बिजली उपलब्ध करने की बात कितनी कारगर होती है यह चौदह अप्रैल से पता चलेगा। किसानों के लिए अभी राज्य और केंद्र दोनों सरकारों को काफी कुछ करना है। ट्यूबवेल लगवाने के लिए सरकार को छूट देने की ज़रुरत है, साथ ही सिंचाई के समय बिजली की बराबर आपूर्ति बनी रहे इसको भी सुनिश्चित करना होगा। सड़क, स्वास्थ्य, आवास से सम्बंधित योजनाओं को ज़मीन पर लागू करवाना होगा। मृदा और भूजल परिक्षण निःशुल्क और रेगुलर करवाना होगा। सोलर पम्प्स, ड्राप इरिगेशन और स्प्रिंक्लर्स को भी प्रोत्साहन देने की जरूरत है। कर्जमाफी एक पहल हो सकती है लेकिन दूरगामी उपाय तलाशने होंगे। कुछ ज़मीनी संगठन उत्तर प्रदेश में इस दिशा में काम कर रहे हैं लेकिन सरकार और समाज के मजबूत लोगों को इस पर आगे आना पड़ेगा। अंततः इस बात को स्वीकार कर लेना चाहिए कि किसानों को कही गयी बातें केवल चुनावी वायदे नही हो सकती। क्योंकि किसान से बेहतर ज़मीनी हकीकत शायद अपने देश में कम ही लोग समझ पाते हैं।