राम पुनियानी
सांप्रदायिक हिंसा, हमारे समाज का नासूर बन गई है। यह हिंसा सामान्यतः, दूरगामी सांप्रदायिक राजनीति का हिस्सा होती है। सांप्रदायिक राजनीति किसी एक धर्म के नाम पर नहीं की जाती। दक्षिण एशिया में म्यांमार और श्रीलंका में बौद्ध धर्म के नाम पर, पाकिस्तान और बांग्लादेश में इस्लाम के नाम पर और भारत में हिंदू धर्म के नाम पर राजनीति की जाती रही है। सांप्रदायिक हिंसा में दोनों प्रतिद्वंदी समूहों नुकसान उठाते हैं। दोनों समुदायों के लोगों को परेशानियां और दुःख झेलने पड़ते हैं। अलग-अलग देशों में अलग-अलग तरह की हिंसा होती रही है। हाल के कुछ वर्षों में भारत में यह भी देखने में आया है कि किसी एक समुदाय के खिलाफ इस तरह से हिंसा की जाती है कि हमलावर समुदाय पर उसका कोई विपरीत असर न पड़े (2014, धूलिया, महाराष्ट्र)। इसके पहले, गुजरात और मुंबई के कत्लेआमों में मरने वालों में अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों का बहुमत था।
मालदा में हाल में हुई हिंसा के संबंध में एक प्रश्न यह उठाया जा रहा है कि क्या वह सांप्रदायिक हिंसा थी या केवल एक आपराधिक कृत्य-असामाजिक तत्वों की कुत्सित हरकत। मालदा में 3 जनवरी को हिंदू महासभा के कार्यकर्ता कमलेश त्रिपाठी द्वारा पैगम्बर मोहम्मद के खिलाफ दिए गए एक वक्तव्य का विरोध करने के लिए मुसलमानों की भारी भीड़ इकट्ठा हुई। कमलेश त्रिपाठी ने यह वक्तव्य उत्तरप्रदेश सरकार के मंत्री आज़म खान द्वारा आरएसएस के संबंध में की गई एक अपमानजनक टिप्पणी की प्रतिक्रिया स्वरूप दिया था। बाद में हिंदू महासभा ने त्रिपाठी के इस वक्तव्य से स्वयं को अलग कर लिया। मीडिया के एक हिस्से और राज्य सरकार के अनुसार, मालदा में लगभग 30,000 मुसलमान इकट्ठा हुए थे। भाजपा के प्रवक्ताओं ने उन टीवी कार्यक्रमों-जिन्हें परिचर्चा कहा जाता है परंतु जो वास्तव में भद्दे वाकयुद्ध होते हैं-में दावा किया कि वहां ढाई लाख मुसलमान इकट्ठा थे! कुछ शरारती तत्वों द्वारा भड़काए जाने से उत्तेजित भीड़ ने स्थानीय पुलिस स्टेशन पर हमला कर दिया और नकली नोटों और ड्रग्स की तस्करी से संबंधित रिकार्ड नष्ट कर दिए। इस घटना में घायल होने वालों की संख्या बहुत बड़ी नहीं थी और ना ही हिंदुओं के विरूद्ध कोई हिंसा हुई थी। अब अध्येताओं को यह तय करना है कि यह हिंसा सांप्रदायिक थी या नहीं। भाजपा कार्यकर्ताओं और उनके बौद्धिक अभिभावकों का कहना है कि यह हिंसा योजनाबद्ध ढंग से की गई थी और इसका उद्देश्य हिंदुओं-जो उस इलाके में अल्पसंख्यक हैं-को भयाक्रांत करना था।
इस त्रासद घटना के बारे में तीन अलग-अलग बातें कही जा रही हैं। ममता बैनर्जी सरकार इसे केवल ड्रग्स व नकली नोटों के कारोबार से जुड़ी कानून और व्यवस्था की समस्या बता रही है। भाजपा, गला फाड़कर चिल्ला रही है कि यह हिंदू अल्पसंख्यकों को डराने की योजनाबद्ध साजिश है। कांग्रेस और सीपीएम कह रही हैं कि यह ममता और भाजपा के बीच नूरा कुश्ती है और ये दोनों पार्टियां कांग्रेस के वर्चस्व वाले इस क्षेत्र में चुनाव में लाभ उठाने के लिए यह कवायद कर रही हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि यह ‘दोहरे धुव्रीकरण’ का मामला है। इसी तरह का ध्रुवीकरण करने का प्रयास सबसे पहले उत्तरप्रदेश के मुज़फ्फरनगर में किया गया था, जहां मुलायम सिंह यादव ने हिंसा इसलिए होने दी ताकि वे मुसलमानों के मसीहा बनकर उससे लाभ उठा सकें और दूसरी ओर, भाजपा व उसके साथियों को ऐसा लगा कि इससे उन्हें चुनाव में दूरगामी लाभ हासिल होगा। इस तरह, दोनों ही पक्षों का लक्ष्य सांप्रदायिक हिंसा से लाभ उठाना था।
मालदा के मामले में ममता बैनर्जी ने पहले तो इस हिंसा को रोकने का प्रयास नहीं किया और बाद में उन्होंने उसे मात्र कानून-व्यवस्था से जुड़ा मसला बताना शुरू कर दिया। इससे ऐसा लगता है कि वे आगामी विधानसभा चुनाव में लाभ पाने के लिए इस इलाके में मुसलमानों का ध्रुवीकरण करना चाहती हैं। दूसरी ओर, भाजपा इसे सांप्रदायिक घटना बताकर लाभ उठाने की इच्छुक है।
हम घूम-फिरकर फिर उसी प्रश्न पर पहुंच जाते हैं कि यह घटना सांप्रदायिक हिंसा थी या नहीं? इस सिलसिले में सबसे अच्छी टिप्पणी ‘‘एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राईट्स’’ (एपीडीआर) की ओर से आई है। एपीडीआर की मालदा शाखा और कई स्थानीय रहवासियों का कहना है कि यह हिंसा ‘‘किसी भी दृष्टिकोण से सांप्रदायिक हिंसा नहीं थी’’। इस सिलसिले में एपीडीआर की यह टिप्पणी महत्वपूर्ण है कि ‘‘जब गैर-मुस्लिम क्षेत्रों में पुलिसकर्मियों को मार डाला जाता है तब उसे केवल ‘अराजकता’ बताया जाता है परंतु जब एक मुस्लिम-बहुल जिले में पुलिस स्टेशन को आग लगा दी जाती है तो उस पर सांप्रदायिक हिंसा का लेबल चस्पा कर दिया जाता है।’’ इस उन्मादी हिंसा के दूरगामी प्रभाव क्या होंगे, यह तो वक्त ही बताएगा परंतु इतना तो कहा ही जा सकता है कि इस घटना ने हमें विभिन्न राजनैतिक दलों के असली इरादों का विश्लेषण करने का मौका दिया है।
इस घटना के तुरंत बाद, भाजपा के अलावा, सोशल मीडिया में सक्रिय उसके विचाराधारात्मक अनुयायियों ने यह कहना शुरू कर दिया कि जो लोग दादरी घटना पर इतना शोर मचा रहे थे, वे अब चुप क्यों हैं? पुरस्कार लौटाने वाली गैंग कहां हैं? सेक्युलरवादियों ने चुप्पी क्यों साध रखी है? जो लोग बहुवाद और धर्मनिरपेक्षता के हामी हैं, उन पर अशालीन भाषा में कटु हमले किए गए।
‘‘आप इस या उस घटना की निंदा क्यों नहीं करते?’’, यह प्रश्न नया नहीं है। सन 2002 की 27 फरवरी को गोधरा कांड के बाद, तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अल्पसंख्यक समूहों और संगठनों की यह कहकर निंदा की थी कि उन्होंने इस घटना की पर्याप्त भर्त्सना नहीं की। तथ्य यह है कि उस समय भी अल्पसंख्यक व मानवाधिकार समूहों व संगठनों ने घटना की तत्काल व कड़े शब्दों में निंदा की थी। परंतु समस्या यह है कि कौनसे वक्तव्य जनता के ध्यान में आते हैं और कौनसे नहीं, यह मुख्यतः इस पर निर्भर करता है कि मीडिया उन्हें कितना महत्व देता है। जब दिल्ली और हैदराबाद में हज़ारों मौलाना इकट्ठा होकर एक स्वर से यह फतवा जारी करते हैं कि ‘‘आतंकवाद गैर-इस्लामिक है’’, तब इसका समाचार अंदर के पेजों में एक या दो कॉलम में छापा जाता है। इसके विपरीत, आज़म खान या ओवैसी के भड़काऊ वक्तव्य पहले पन्ने की सुर्खियां बनते हैं।
धर्मनिरपेक्षतावादियों को हमेशा जोर-शोर से कटघरे में खड़ा किया जाता रहा है। मालदा घटना के बाद एक सज्जन ने बहुत गुस्से से भरा एक मेल भेजा, जिसमें इस लेखक की कड़ी निंदा करते हुए उसके राष्ट्रवाद व धन के स्त्रोतों पर प्रश्नचिन्ह लगाया गया। सेक्युलरवादियों को गालियां देने वाले गुमनाम ईमेल आम हैं। दादरी में यही लोग भीड़ द्वारा एक व्यक्ति को पीट-पीटकर मार डालने को इस आधार पर उचित ठहरा रहे थे कि उसके पास गौमांस था। परंतु असली दुःख की बात यह है कि यह हमला सुनियोजित था, भयावह था और एक एजेंडे का हिस्सा था।
दादरी की तुलना मालदा से नहीं की जा सकती। यद्यपि हम मालदा की घटना की भी कड़ी निंदा करते हैं। पैगम्बर मोहम्मद के अपमान या म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों पर अत्याचार जैसे मुद्दों पर यदि मुसलमानों की बड़ी भीड़ देखते ही देखते इकट्ठा हो जाती है तो इसका कारण यह है कि मुसलमान सामुदायिक, वैश्विक और स्थानीय स्तर पर असुरक्षित, असहाय और व्यथित अनुभव कर रहे हैं। पूरी दुनिया में इस समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। इस्लाम के प्रति जो भय चारों ओर व्याप्त है, उसका असर मुसलमानों और गैर-मुसलमानों दोनों पर पड़ रहा है। जहां गैर-मुसलमान हिंसा की सभी घटनाओं के लिए इस्लाम और मुसलमानों को दोषी ठहरा रहे हैं, वहीं मुसलमान ऐसी घटनाओं को भी अपने समुदाय पर अत्याचार के रूप में देख रहे हैं, जिनकी प्रकृति ऐसी नहीं है। निःसंदेह, इस तरह की प्रतिक्रिया निंदा योग्य है परंतु इसके पीछे जो असुरक्षा का जो भाव है उसे भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।
इस सिलसिले में अफगानिस्तान और ईराक पर हुए हमले उल्लेखनीय हैं। हमारे देश में हैदराबाद की मक्का मस्जिद, मालेगांव, अजमेर और समझौता एक्सप्रेस में हुए बम धमाकों के बाद बड़ी संख्या में मुस्लिम युवकों की अंधाधुंध गिरफ्तारी की गई थी। बाटला हाउस मुठभेड़ के बाद, उत्तरप्रदेश के कई जिलों में रहने वाले मुसलमानों ने दिल्ली में रह रहे अपने बच्चों को वापस बुलवा लिया था। याकूब मेमन को फांसी दिए जाने के बाद बडी संख्या में लोगों ने शोक व्यक्त किया। इसे एक आतंकवादी के समर्थन के रूप में देखा गया। मुंबई में 92-93 के दंगों के संबंध में यह माना जा रहा है कि उसे अंजाम देने वालों को उपयुक्त और पर्याप्त सज़ा नहीं मिली। इसके विपरीत, दंगों के बाद हुए बम धमाकों के सभी दोषियों को पकड़ लिया गया, उनमें से कुछ को फांसी दे दी गई और बाकी जेलों में सज़ा काट रहे हैं। तो न्याय कहां हैं? किसी बम धमाके में एक छोटी सी भूमिका के लिए किए किसी व्यक्ति को फांसी पर क्यों चढ़ाया जाना चाहिए?
मालदा की हिंसा, हिंदुओं के खिलाफ नहीं थी। वह केवल पैगम्बर साहब के खिलाफ दिए गए एक वक्तव्य का विरोध करने के लिए इकट्ठा हुई भीड़ का नियंत्रण से बाहर हो जाना था। बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने के बाद क्रोधित मुस्लिम युवकों ने मुंबई में कई पुलिस स्टेशनों पर पत्थरबाजी की थी। उनका गुस्सा हिंदुओं के प्रति नहीं था बल्कि वे मस्जिद की रक्षा करने का अपना कर्तव्य पूरा करने में राज्य की असफलता पर अपना रोष व्यक्त कर रहे थे। इस तरह की घटनाओं को इस स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता है मानो मुसलमानों की भीड़ जब भी कहीं इकट्ठा होती है वह हिंसक हो जाती है। यह सही है कि इस तरह की कई घटनाएं हुई हैं जिनमें मुंबई के आज़ाद मैदान और मालदा-पूर्णिया में हुई घटनाएं शामिल हैं। परंतु ऐसे भी कई उदाहरण हैं जब मुसलमानों की बड़ी भीड़ इकट्ठा हुई, उसने किसी व्यक्ति या घटना के प्रति अपना विरोध व्यक्त किया और फिर सब लोग शांतिपूर्वक अपने-अपने घर चले गए। सांप्रदायिकता से कड़ाई से निपटने की ज़रूरत से कोई इंकार नहीं कर सकता। दोषियों को सज़ा मिलनी ही चाहिए। इस मामले में कोई समझौता नहीं हो सकता। परंतु जब आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे मायाबेन कोडनानी और बाबू बजरंगी जैसे लोगों को ज़मानत मिल जाएगी तब हम किस मुंह से न्याय की बात करेंगे।
(मूल अंग्रेजी से हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)