युवास्था जीवन का एक महत्वपूर्ण समय माना जाता है. यह समय बचपन और समझदारी के बीच का ब्रिज होता है. पढाई पूरी होने के बाद नौकरी मिलने या न मिलने के मध्य यह समय युवा अलग-अलग तरीको से बिताते हैं. समय की प्रचुरता को अपनी समझ, सोच और संपर्क के हिसाब से युवा को अपने भविष्य संबंधी योजना बनाने और आसपास के जनसमाज को समझने के लिए अच्छा स्पेस देती है. लेकिन इस समय का प्रयोग वे कैसे करते हैं और उससे उनके जीवन की दिशा कैसे तय होती है यह समझना बहुत जरुरी है.
उत्तर प्रदेश और बिहार में युवाओं की संख्या काफी अधिक है.
सन 2011 की जनगडना के हिसाब से उत्तर प्रदेश की कुल जनसँख्या 199,812,000 है. इसमें 10-19 वर्ष की संख्या 48910000 है और इस आयुवर्ग में लिंग अनुपात 882/1000 है. वहीँ 15-24 आयुवर्ग में कुल जनसँख्या 40,619,000 और लिंगानुपात 871/1000 है. शहरों में कुल आबादी का 65% शिक्षित, जबकि गाँवों में 55% लोग शिक्षित हैं. उत्तर प्रदेश के 65% पुरुष और 48% महिलाएं शिक्षित हैं. 10-19 वर्ष आयुवर्ग में शहरी क्षेत्रों में 83% और ग्रामीण क्षेत्रों में 87% शिक्षित हैं. इस आयुवर्ग में कुल 84% लड़कियां और 89% लड़के शिक्षित हैं. 15-24 वर्ष आयुवर्ग में शहरी क्षेत्रों में 82% और ग्रामीण क्षेत्रों में 81% युवा शिक्षित हैं. 15-24 वर्ष आयुवर्ग में लड़कियों की संख्या 76% और लड़कों की संख्या 87% है. यहाँ इस बात को समझने की आवश्यकता है कि साक्षर होने और शिक्षित होने में जो अंतर है वह जनगड़ना में सामने नहीं आता है.
उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों का उदाहरण लेकर युवा, राजनीति और रोजगार पाने के उनके प्रयास के दौरान होने वाली प्रक्रिया को समझने का प्रयास करते हैं. बनारस में समय पर किसी कार्यक्रम में शायद ही कोई पहुँचता हो, इसका कारण यह नहीं है कि लोग समय का महत्व नहीं समझते बल्कि यह है कि लोग समय को पूरी तरह से प्रयोग करना जरुरी समझते हैं. ऐसे में युवाओं के लिए दो-तीन डिग्रियां लेना, पार्ट-टाइम काम करना और जॉब ऍप्लिकेशन्स भरने में समय बिताना भी महत्वपूर्ण समझा जाता है.
रायबरेली जनपद अन्य किसी कारण से प्रसिद्ध हो न हो राजनीतिक गलियारों में हमेशा चर्चा में बना रहता है. तकरीबन पैंतीस लाख की आबादी वाला यह शहर अपनी स्थापना से लेकर आज तक कई बहुआयामी प्रतिभाओं को उनकी मंज़िल तक पहुंचा चुका है. शहर के हर वर्ग में अपनी अगली पीढ़ी को स्थापित करने की चाह है. शहर में शिक्षा का स्तर बढ़ है, युवावर्ग सक्रिय है और शिक्षित होने के बाद रोज़गार की तलाश में लग जाता है. इन शिक्षित बेरोजगारों की संख्या हर साल अच्छी-खासी होती है. यह बेरोजगार युवा अपना समय अलग-अलग गतिविधियों में बिताते हैं, स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय से आयी क्रेग जेफ्री की किताब “टाइमपास: यूथ, क्लास एंड पॉलिटिक्स ऑफ़ वेटिंग इन इंडिया” में मेरठ के युवा वर्ग का उदहारण लेते हुए युवाओं की गतिविधियों को समझने की कोशिश की गयी है. उच्च और मध्यम वर्ग अपने राजनीतिक और सरकारी नेटवर्क बनाने के लिए काफी समय, संसाधन और गिफ्ट्स का प्रयोग करता है. इससे इनके छोटे-बड़े काम बनते रहते हैं. इस वर्ग के युवाओं को यह जानकारी कि किससे कैसे संपर्क करना है और उस संपर्क से क्या फायदे हैं उनके पारिवारिक और सामाजिक संवादों से मिल जाती है. रायबरेली के उमरामऊ निवासी आशीष सिंह का कहना है कि जो युवा अपना शहर या प्रदेश छोड़कर शिक्षा के लिए कहीं बहार नहीं जाते हैं उनके लिए यह जानकारी इकठ्ठा करना और उसे शेयर करना रोज़मर्रा के वार्तालाप का हिस्सा बन जाता है. जेफ्री की किताब में एक और उल्लेखनीय बात सामने आती है कि शिक्षामात्र समाज में आगे बढ़ने का साधन नहीं है और न ही ऐसे साधन उपलब्ध कराती है.
अब रायबरेली के युवाओं की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है जो लगभग पंद्रह साल की औपचारिक शिक्षा पाने के बाद भी रोजगार पाने में अक्षम रहते हैं. ऐसे में राजनीतिक सम्बन्ध और घूस रोजगार दिलाने में महत्वपूर्ण बन जाते हैं. दूसरे यहाँ बेरोजगार युवावर्ग राजनेताओं के बाहुबल का काम भी करता है. इससे वह अपने कुछ काम तो करा पाते हैं. जो उन्हें रोजगार की अनुपलब्धता में स्वयं के महत्वपूर्ण होने का अहसास कराते हैं. पान-चाय की गुमटियां और कुछेक दोस्तों की दुकानें मीटिंग पॉइंटस का काम करती हैं. इस पर आशीष का कहना है कि यह सब कुछ एकदम गलत है. नेटवर्क बनाना ज़रूरी है लेकिन यदि हम पिछले दो-तीन दशकों से जारी इस पैटर्न को देखें तो एक सवाल लगातार कौंधता रहा है कि जो युवा एक अदद रोजगार की तलाश में अपना इतना समय और संसाधन खर्च करता है वह इससे खुद क्या हासिल कर पता है और उसकी उपलब्धियां क्या उसकी क्षमता और योग्यतानुरूप हैं. और इस टाइमपास के दौरान एक अदद नौकरी का न होना युवाओं में हताशा लाता है और उनकी सामाजिक स्थिति को अस्थिर करता है. जिसके लिए किसी प्रकार की क्षतिपूर्ति की कोई सम्भावना नहीं है.