ग्रीस में सीरिजा पार्टी, अतिवादी वामदल, की अपेक्षित जीत ने पहले से ही पूरे वित्तीय बाजारों में संकेत भेज दिए थे। सीरिजा की इस जीत के पीछे भारत समेत पूरी दुनिया के लिए एक महत्वपूर्ण सबक है कि सरकारों द्वारा आर्थिक असमानताओं को सम्बोधित न करना राजनीतिक-सामाजिक उथल-पुथल को और प्रबल कर देगा। जबकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अब तक गरीबी घटाने और बेरोजगारी कम करने की जरूरत पर केवल “दिखावा” ही कर रहे हैं। अब तक इस बात का कोई प्रमाण देखने को नहीं मिला है कि जो व्यापार अनुकूल नीतियां मोदी सरकार अपना रही है, वे उन समस्याओं को सम्बोधित कर पाएंगी, जो दुनिया के अन्य देशों में अर्थव्यवस्था की बुनियाद को हिला रही हैं।
अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और यूरोपियन यूनियन ने ग्रीस सरकार को आर्थिक संकट से उबारने के लिए आर्थिक सहायता का रास्ता तलाशा पर हुआ इसका ठीक उलट। पांच साल से भी कम वक्त में ग्रीस अर्थव्यवस्था लुट गई। राष्ट्रीय आमदनी कम होते हुए चौथाई तक सिमट गई। हर तीन में से एक व्यक्ति गरीबी, बेरोजगारी और सामाजिक बहिष्कार में जी रहा है।
जिस प्रकार एथेंस में नई सरकार तथाकथित मितव्ययी उपायों के खिलाफ लड़ रही है और राष्ट्र पर पड़े कर्ज भार को लेकर फिर से बातचीत करने की राह तलाश रही है, ऎसे में निश्चित ही उसे भारी विरोध का सामना करना पड़ेगा। खासतौर पर जर्मन चांसलर एजेंला मर्केल, यूरोपियन सेंट्रल बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की ओर से विरोध सहना पड़ेगा। यूरोप में आने वाले वक्त में भारी आर्थिक और सामाजिक एवं राजनीतिक अनिश्चितता दिखने के आसार है।
बतौर मुद्रा यूरो के भविष्य पर एक बार फिर सवाल खड़े हो रहे हैं कि इस क्षेत्र में राजनीतिक एकीकरण के अभाव में क्या आर्थिक एकता सम्भव है। ये मुद्दे जल्दबाजी में हल नहीं होने वाले हैं। भला हो यूरोप में पिछले साढ़े छह साल से जारी भारी आर्थिक मंदी का, जिसके चलते यूरो की अमरीकी डॉलर के मुकाबले विनिमय दर पिछले 11 साल में न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई है। स्पेन, फ्रांस, नीदरलैंड जैसे देशों में राजनीतिक लड़ाई के लिए दक्षिणपंथ और वामपंथ अपने-अपने मोर्चे पर कमर कस रहे हैं। ग्रीस के चुनावी परिणामों को कई विश्लेषक कुलीन वर्ग के खिलाफ युवाओं का आक्रोश मान रहे हैं।
मेक्सिको के कार्लोस स्लिम धरती पर सबसे अमीर आदमी हैं। ऑक्सफोम की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक कार्लोस यदि रोज दस लाख डॉलर(6.2 करोड़ रूपए) खर्च करें तो उन्हें अपनी 80 अरब डॉलर की पूंजी को खर्च करने में 220 साल लग जाएंगे। यही रिपोर्ट कहती है कि दुनिया के सबसे अमीर 85 लोगों के पास दुनिया की उस आधी आबादी के बराबर धन है जो गरीब है। इन अरबपतियों ने मार्च 2013 से मार्च 2014 के बीच हर मिनट 6680 लाख डॉलर की पूंजी जोड़ी है।
सितम्बर 2008 के वित्तीय संकट से उपजी मंदी के बाद धरती पर अरबपतियों की दोगुना से भी अधिक हो गई है। इस दौरान दुनिया के कई देश मंदी के भंवर में फंस गए। लाखों लोग बेरोजगार हो गए और सरकारों ने लोक कल्याणकारी योजनाओं में कटौती कर ली। भारत को इस दिशा में नहीं बढ़ना चाहिए। पर यहां तो सरकार नरेगा और खाद्य सुरक्षा कानून के क्रियान्व्यन की गुणवत्ता बढ़ाने की जगह स्वास्थ्य और रोजगार सृजन कार्यक्रमों में कटौती कर रही है।
ओक्सफॉम की रिपोर्ट यह भी उजागर करती है कि 1980 से 2002 के बीच विभिन्न देशों के बीच असमानताएं बढ़ी हैं। रिपोर्ट में कहा है कि देश के भीतर भी असमानता बढ़ी है। ऎसी कि दस में सात लोग उन देशों में रहते हैं जहां गरीब और अमीर के बीच खाई तीस साल पहले की तुलना में बहुत बढ़ गई है। रिपोर्ट में कहा गया है “पिछले तीस साल के दौरान दुनिया भर में असमानता का विस्फोट हुआ है। यही वर्तमान समय की सबसे बड़ी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक चुनौती है।
गरीब-अमीर में बढ़ी खाई से लिंग, जात-पांत, नस्ल और धार्मिक भेदभाव आधारित अन्याय भी बढ़ गया है।” ओक्सफॉम के अनुभव बताते हैं कि गरीबी और असमानता अपरिहार्य या संयोग नहीं होता, बल्कि यह नीतियों जनित होता है। असमानता की धारा को बदला जा सकता है। देवोस में जब यह रिपोर्ट विश्व के रईसों के समक्ष पेश की गई (जहां भारतीय वित्त मंत्री अरूण जेटली भी मौजूद थे) तो सभी शक्तिशाली उद्योगपतियों ने समझदारी से इस पर सहमति जाहिर की।
बिल गेट्स और वारेन बफेट जैसे रईस विश्व में बढ़ रही चरम आर्थिक विषमताओं के खतरों की बात करते रहे हैं, जो कि लगातार तनाव और विवाद पैदा कर रही हैं। लेकिन अभी तक कोई तब्दीली नहीं देखने को मिली है। ऑक्सफेम रिपोर्ट की मानें तो हालात और विकट होते जा रहे हैं। भारत में पूर्ववर्ती मनमोहन सिंह सरकार द्वारा खाद्य मुद्रास्फीति न घटा पाने के कारण उसके प्रति आम भारतीय का गुस्सा जगजाहिर है।
भारत में हमेशा से ही आमदनी और सम्पन्नता को लेकर गहरी खाई रही है। पिछले कुछ वर्षो में यह और गहरा गई है। हालांकि यह तर्क तो सही नहीं है कि अमीर और अमीर हो रहे हैं, गरीब और गरीब। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि जिस तेजी से उच्च वर्ग सम्पन्न हुआ है, उतनी तेजी से गरीबों की आमदनी नहीं बढ़ी है। ऑक्सफेम रिपोर्ट इस बात का सही उल्लेख करती है कि पिछले तीन दशकों में आर्थिक विषमता बढ़ी है।