Sat. Nov 23rd, 2024

नूर जैसी फिल्में हमारे इतिहास का बोझ बढ़ा रही है …

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नूर मूवी
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सुनहिल सिप्पी निर्देशित नूर बड़े पर्दे रिलीज हुई तो लगा पत्रकारिता के किसी अनछुए पहलू से हमारा परिचय होगा ? एक बार को लगा कि कोई ऐसी कहानी दर्शकों के बीच आएगी जो बड़े मीडिया घरों की रोज की बात है जिससे हम सभी अनभिज्ञ हैं। लेकिन यहाँ मामला उलट था । फिल्म के बारे में अगर इंवर्टेड कॉमा में यह कहा जाय कि ‘नूर जैसी फिल्में हमारे इतिहास का बोझ बढ़ा रही है’तो किसी को शायद ही कोई आपत्ति होगी ।

फिल्म कराची की रहने वाली मशहूर पत्रकार,पटकथा लेखिका,संगीत में गहरी रुचि रखने वाली सबा इम्तियाज़ के उपन्यास कराची,यू आर किलिंग मी पर आधारित है। फिल्म नूर के केंद्र में मुंबई,यू आर किलिंग मी जरूर है, लेकिन कहीं से वो दर्शकों को जरा सा एहसास नहीं करा पाती कि वाकई मुंबई उसे मार रहा है…। फिल्म का निर्देशन सुनहिल सिप्पी का है,लेकिन कहीं से भी फिल्म को निर्देश देता हुआ नहीं दिखता। कैमरा है, जो बस चलता जा रहा हैं । और दर्शक ऊब ऊब कर सिनेमा हॉल से निकलते जा रहे थे।

सोनाक्षी सिन्हा ने जिस तरह सोशल मीडिया माध्यमों की मदद से फ़िल्म नूर के एक महिला पत्रकार की कहानी होने का जिक्र किया वो बहुत ही जूठा किस्म का मालूम देता है। इसीलिए अक्सर माना जाता है कि, विज्ञापन झूठे ही होते है । इसका खामियाजा हिन्दी सिनेमा की उन कहानियों को भुगतना पड़ेगा, जिनमे वाकई महिला मुद्दों की बात की जाएगी । लोग नूर जैसी फिल्मों को देख एक धारणा बना लेंगे और दोबारा किसी फिल्म के विज्ञापन पर भरोषा शायद ही कर पाएँ ।

मुंबई के मानखुर्द की कहानी अक्सर हम सुनते,देखते,पढ़ते आए हैं। यह मुंबई का वह स्लम एरिया है जहां गरीब और बीमारी साथ साथ रहते है। मुंबई जितनी हसीन दिखती है, उतना ही मानखुर्द जैसे इलाके, गंदे और बीमारू । यहाँ गंदगी है,अशिक्षा है,वृश्यावृत्ति है, अंगो का बड़ा व्यापार है,और बच्चो के चोरी होने जैसी घटनाएँ आम है। इसी में से एक मानखुर्द में चल रहे अंगो के व्यापार को लेकर सुनहिल ने फिल्म नूर बनाई है ।
नूर(सोनाक्षी सिन्हा) का सपना सामाजिक मुद्दों को लेकर पत्रकारिता करने का था,लेकिन उसका दोस्त और बॉस शेखर दास (मनीष चौधरी) उसे सनी लियोनि के इंटरव्यू जैसी स्टोरी में ही लगाए रखता है। फिल्म में नूर खुद कन्फ़्यूज है और दर्शकों को भी खूब कनफ्यूज करती दिखती है। एक्टिंग के नाम पर सोनाक्षी ने क्या-क्या पागलपन किया है यह अपने आप में ही बड़ा सवाल है। कभी वह अपनी नौकरानी मालती से घर का काम कराने की जिद करती है तो कभी वह मालती की (जिसके भाई की मुंबई के बड़े डाक्टर शिंदे द्वारा चोरी से किडनी निकाल ली गयी है ) मदद भी करती है।

हम सभी को यह पता है की समाज में फैले ऐसे काम (अंगो के बड़े व्यापार) बड़े पैमाने और बड़ी ही चालाकी से किए जाते है। लेकिन एक पत्रकार का मामूली तरीके से इस समस्या से निजात पाना, निर्देशक के बचकानेपन और समाज की वास्तविकता से दूर होने की बात को प्रमाणित करती है। नूर की वजह से ही मालती के भाई की जान डाक्टर शिंदे ने ले ही है, और नूर है कि लंदन जाकर अपने दोस्त के साथ मस्ती कर रही है। इमोशन्स और मालती के प्रति उसके समर्पण को निर्देशक ने एकदम नज़रअंदाज़ किया। और फ़िल्म आखिरी तक आते-आते और भी ज्यादा बोर तब करती है, जब फिल्म का अंत ही नहीं हो रहा होता । दर्शक चाह रहा है कि अब ये नूर बंद हो और हम सिनेमा हॉल से बाहर चले। सही मायनें में पर्दे के किसी भी कलाकार को शायद उसके अभिनीत किरदार में हम पसंद न कर पाएँ, क्योकि कोई भी कलाकार अपनें किरदार डूबा हुआ दिखता ही नहीं ।

प्रमोशनल टूल्स के माध्यम से, पत्रकारिता के पेशे में महिला की स्थिति को लेकर फ़िल्म में सवाल किए जाने की बात थी वो नदारद है । फ़िल्म में अगर नूर का किरदार भी सही तरीके से गढ़ा गया होता तो शायद दर्शकों को पसंद आती । लेकिन एक संवेदनशील मुद्दे को लेकर निर्देशक ने बेईमानी की है । फ़िल्म में वो इतना भी नहीं रख पाएँ जितना बतौर सत्यजीत रे हिन्दी सिनेमा के लिए कहते थे …

“एक औसत हिन्दी फ़िल्म की सामग्री तयशुदा ही होती है। उसमें तड़क भड़क,बोलचाल की भाषा में छह-सात गीत,एकल या समूह में नाच गाना होता है,जो जितना विरोधा भाषी होता है उतना ही बेहतर माना जाता है । अच्छे लड़के,बुरे लड़के,रोमांस,आँसू, हास्य,लड़ाई प्रतिस्पृधा, नाटकीयता,ऐसे पात्र जिनका अस्तित्व समाजिक शून्य में होता है तथा भव्य लोकेशन और मकान जो आम तौर पर होते ही नहीं … उदाहरण के लिए आप किसी भी फ़िल्म में इनमें से दो बातें जरूर पाएंगे …”

महिला मुद्दों पर बनी फिल्मों की कमाई पर ध्यान देंगे तो पाएंगे की अभी हाल ही मे रिलीज हुई विद्या बालन की ‘बेगम जान’ ने 3.94 करोड़, ‘नाम शबाना’ ने 5.12 करोड़ का कलेक्शन, अनुष्का शर्मा की ‘फिल्लौरी’ ने 4.02 करोड़ और अभी तक के सबसे निचले पायदान में सोनाक्षी सिन्हा की ‘नूर’ दिख रही है।

महिला मुद्दों पर बनी फिल्मों का इन दिनों बॉलीवुड में ट्रेंड हो चला है, सिनेमा अध्ययन के कई प्रोफेसर और शोधार्थी,महिला मुद्दों पर बनी फिल्मों पर अच्छे शोध कार्य कर रहें हैं जिसका नतीजा यह भी है की दर्शक अब इन फिल्मों से जल्दी से जल्दी जुड़ जाता है उर समाज की उस कहानी को देखना चाहता है जिसमें महिला नायक हो उसका प्रतिनिधित्व भी सिनेमाई पर्दे पर सकारात्मक हो। लेकिन नूर जैसी फिल्मों के निर्देशकों के मन में ऐसे विषयों को लेकर क्या चल रहा है, यह समझ पाना मुश्किल है। समाज में चल रहें अराजक धंधों के खिलाफ जहां नूर को अपना सशक्त पक्ष रखना चाहिए था, एक संदेश देना चाहिए था वहाँ ऐसे विषयों के साथ छेड़छाड़ कहीं से भी उचित नहीं है।

किसी भी फिल्म का कोई न कोई उद्देश्य जरूर होता है,नूर की भी सबसे बड़ी ख़ूबी यह है कि फ़िल्म का संदेश यह हैकि किसी भी पत्रकार को पत्रकार होने के साथ-साथ इंसान होना भी ज़रूरी है । नाम और शौहरत कमाने के चक्कर में उसे इंसानियत का फ़र्ज नहीं भूलना चाहिए।

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