दिल्ली के दिल कनौट प्लेस में 25 जनवरी, 2010 का वो दिन भुलाये नहीं भूलता, जब मुझे बगल में बैठे एक पुलिसवाले ने मानो आतंकवादी घोषित कर ही दिया था, सिर्फ इसलिए क्योंकि मैं अपने साथ लद्दाख के एक होटल का कार्ड लेकर चल रहा था. जम्मू और कश्मीर में कुछ महीने पहले आई बाढ़ आपदा के वक़्त जब मैं वहां सहायता करने गया था, तभी से यह कार्ड मेरे पास ही था. और, शक की आग में घी का काम किया मेरी दाढ़ी ने. आखिर पर्स में कश्मीर का कार्ड, और चेहरे पर दाढ़ी—अराजकता को यही चिन्ह ही तो बयाँ करते हैं आजकल!
मेरे ज़ेहन में रवीन्द्रनाथ टैगोर के अलावा शायद किसी और का ध्यान नहीं आता, जो दाढ़ी रखने के बावजूद भी मीडिया में अपनी छवि उज्जवल रख पाए थे. इस वक़्त दाढ़ी मीडिया में सबसे बड़ा विलन बनकर उभरी है, जिसके चलते अब लोग दाढ़ी रखने में हिचकिचाने लगे हैं. गुरुदेव द्वारा लिखी गयी पंक्तियों—“जिथो जेथा भयशून्यो”—की तर्ज़ पर ही दाढ़ी का बोझ सँभालते हुए सर ऊँचा कर चला तो जा सकता है, पर ‘दाढ़ीजार’ से जुड़े अलगाव, भ्रांतियों और भय को अपने और लोगों के विचारों से निकालना बहुत मुश्किल है.
मैं पिछले दो वर्षों से मुंबई में रह रहा हूँ, और दाढ़ी और कुर्ते के कारण प्रायः लोग मुझे इस्लाम धर्म का अनुयायी समझते हैं. नवी मुंबई में वाजिब दामों में घर लेने की मेरी कोशिश में मेरी दाढ़ी अक्सर आड़े आई, क्योंकि लोग मुझे देखते ही मुस्लिम समझकर घर देने-दिखाने से मना कर देते. घृणा और डर कुछ इस तरह वातावरण को घुटन भरा और भारी बना रहे थे कि उस समय मैं अपना नाम बताने तक के लिए एक लम्बी सांस भी नहीं खींच पाया. यद्यपि मेरा नाम हिन्दू होने की पहचान का सूचक है और मेरा खतना भी नहीं हुआ है, पर वहां मैं यह सब नहीं कह पाया. कारण—उस वक़्त मेरा धर्म इतना महत्त्वपूर्ण मुद्दा नहीं था, जितना बड़ा मुद्दा उसकी पहचान से जुड़ा द्वेष और गुस्सा था.
धर्म के सामाजिक आवरण को ढालने में भौगोलिक परिस्थितियों का एक बड़ा हाथ होता है. किसी समुदाय या जाती की संस्कृति काफ़ी हद तक उनकी भौगोलिक-सामाजिक स्थिति से भी प्रदर्शित होती है. हालाँकि, इन जगहों (और इनसे सम्बंधित समुदायों) के आविर्भाव और इनसे जुड़ी पहचान के प्रचार-प्रसार में सरकार नीतियों के साथ ही मीडिया भी बहुत अहम हिस्सा निभाती है.
विश्व भर में सरकारी तंत्र की नीतियाँ अक्सर आर्थिक रूप से अशक्त और किसी समुदाय विशेष के लोगों को एक ही जगह जमा होकर दड़बे-जैसी स्थितियों में रहने पर विवश कर देती हैं, ताकि आँखों की किरकिरी बनने वाले इन मटमैले समूहों राष्ट्र की चमचमाती छवि से आसानी से बाहर धकेला जा सके. जहाँ एक ओर तो इस तरह का भौगोलिक अलगाववाद उन सभी समुदायों को सुविधाओं और संसाधनों से अलग कर देता है, तो वहीँ दूसरी ओर उनके प्रति ग़लतफ़हमियों में लिपटी एक छवि भी बाकियों के सामने प्रस्तुत करता है. हमारे देश में इसका एक सबसे बड़ा उदहारण कुछ राज्यों और उनके नागरिकों से सम्बंधित भ्रांतियाँ हैं.
इस बात को एक ताज़ा उदहारण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है. अभी हाल ही में सन्डे मुंबई मिरर और असम की स्थानीय अख़बारों में बोडो आदिवासियों द्वारा नागरिकों को मारे जाने की ख़बर छापी गयी थी. बोडो उत्तर-पूर्व की एक जनजाति है जिसके कुछ उग्र सदस्य इस हत्याकांड में शामिल थे. अब इस घटना के इस रूप में प्रसारित-प्रचारित होने के बाद, क्या कोई शहरी व्यक्ति सहजता से किसी बोडो को अपने घर किराये पर रखने के लिए तैयार हो पाएगा? बोडो जनजाति पर मीडिया द्वारा मढ़ा गया ‘हत्यारों’ और ‘अराजकता-वादियों’ का ठप्पा इतनी आसानी से धुल नहीं पायेगा. दरअसल, उत्तर-पूर्वी राज्यों और जम्मू-कश्मीर को मीडिया केवल हिंसा और अराजकता के बिम्ब के रूप में ही देखती और दिखाती है, और इस स्थान से जुड़ी किसी भी ख़बर का अख़बार की सुर्ख़ियों में आने के लिए प्रायः हिंसा और नरसंहार के खूनी रंग में रंगा होना अनिवार्य होता है.
समस्या चाहे दाढ़ी से उपजे शक की हो या फिर सिर की छत ढूँढने में धर्म के सर्टिफिकेट के महत्त्व की; निष्कर्ष यही निकलता है कि किसी भी भूगोलिक क्षेत्र से जुड़े समुदाय की पहचान, उनकी वेशभूषा और यहाँ तक कि उस जगह के नागरिकों के आचरण तक को मीडिया और सरकारी तंत्र अपने विचारानुसार (तोड़-मरोड़कर) प्रस्तुत करता है. यही छवि शहर, गाँव में बैठे हर आम व्यक्ति के मन में आशंकाओं और भ्रांतियों को जन्म देती है और अक्सर एक दाढ़ी रखने वाला व्यक्ति सड़क-उद्यान में शक और घृणा की नज़रों से देखा जाता है…
(संवाद- मोहिनी मेहता )