वर्ष 2011 में एडवोकेसी नेटवर्किंग एंड डेवलपमेंट एक्शन (TANDA, टांडा) एक फील्ड एक्शन प्रोजेक्ट (FAP) के रूप में, टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (टीस ) से शुरू हुआ. यह प्रोजेक्ट, सेंटर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड जस्टिस, स्कूल ऑफ सोशल के माध्यम से मुंबई में पारधी समुदाय के साथ लगभग दो वर्षों के छात्र क्षेत्र पर आधारित है जो प्रो.विजय राघवन के मार्गदर्शन में काम करता है.
टांडा “भारत के नागरिकों के रूप में अपने संवैधानिक और अधिकार अधिकारों की प्राप्ति सुनिश्चित करने के लिए आत्मनिर्भर एन.टी, डी.एन.टी (NT-DNT) और और अन्य हाशिए पर रहने वाले समुदायों को बनाने की दिशा में काम करता है”. टांडा का मानना है कि एन.टी, डी.एन.टी को अपने अधिकारों और गरिमा की वकालत करने के लिए खुद को व्यवस्थित करना चाहिए.
वर्ष 2010 मई में, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने मुम्बई में पारधी समुदाय के साथ काम करने के लिए मयंक सिन्हा और पंखी अग्रवाल (टी.आई.एस.एस के पूर्व छात्र) को फेलोशिप दी. मयंक ने पहले घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन के साथ एक साल का फील्डवर्क किया था और टीस (2008-10) से सामाजिक कार्य में एम.ए के दौरान अपने क्षेत्र के काम के हिस्से के रूप में मुंबई में पारधी समुदाय के साथ काम किया था. इस समुदाय के साथ काम करते करते, टांडा प्रोजेक्ट के स्वरुप का जनम हुआ.
ये एन.टी, डी.एन.टी. है क्या ?
डी.एन.टी : DNTs (अस्वीकृत जनजातियाँ) वे समुदाय हैं जिन्हें आपराधिक जनजाति अधिनियम के तहत अपराधी घोषित किया गया था. महाराष्ट्र में, चौदह ऐसे समुदाय हैं जिन्हें आपराधिक घोषित किया गया था. वे बरद, बेस्टार, भटमा, कैकड़ी, कंकरभट, कटाबू, लमानी, चरण-पारधी, राज-पारधी, राजपूत-भटमा, रामोशी, वदर, वाघारी और छपरबंध (परिशिष्ट – 1) हैं। बाद में 1952 में, भारत सरकार ने इस अधिनियम को निरस्त कर दिया जिसमें आपराधिक समुदायों को निरूपित किया गया. महाराष्ट्र में उन्हें डी.एन.टी या विमुक्ता जाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है.
एन.टी: NTs (नोमैडिक ट्राइब्स) वे समुदाय हैं, जो सरकार के संकल्प संख्या CBC-10/2006 / P.No.94 / MVC-5 के अंतर्गत सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक मामलों और विशेष सहायता विभाग द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। महाराष्ट्र में इन समुदायों को NTs या भटक्य जाति के नाम से जाना जाता है।
वर्तमान में टांडा पारधी, वाडारिस, मसंजोगिस और बंजारों, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति (सबार जनजाति- पुरुलिया पश्चिम बंगाल) के साथ लगी हुई है और नवी मुंबई और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले में लगभग 2000 परिवारों के साथ काम कर रही है.
नवी मुंबई की मौजूदा स्थिति जानने के लिए योगेन्द्र घोरपड़े जो कि टीस मुंबई से टांडा का काम संभालते हैं, उनसे बात हुई. उन्होंने बताया कि टांडा नवी मुंबई में चार मुख्य जगह काम कर रहा है. जहाँ घुमंतू समुदाय की शिक्षा, स्वस्थ्य से लेकर आजीविका पर उनका ध्यान केन्द्रित है.
तुर्भे में दो जगह: महावीर कॉलोनी में हज़ार, गणपति पाड़ा में हज़ार, एरोली में करीब हज़ार और पटनी में १६७ फॅमिली है. महावीर कॉलोनी में स्टोन माइनिंग, और कंस्ट्रक्शन का काम करते हैं, ऐरोली में भी कंस्ट्रक्शन के काम में ज्यादातर लोग हैं. कुछ दम्पतियों में से महिलाएं भी मजदूरी का काम करती हैं, और उनमें से कुछ घर में झाड़ू, साफ़ सफाई. एरोली में वडार, बंजारे, और धांगर समुदाय के ज्यादा लोग हैं. दीघा, महावीर कॉलोनी और गनपत पाड़ा में करीब 70 प्रतिशत के पास राशन कार्ड है. बाकी ३० प्रतिशत में से कुछ दुसरे जिले, गाँव के हैं, और उनका राशन कार्ड भी वहीँ हैं, और कुछ के पास राशन कार्ड भी नहीं है. अधिकतर पश्चिम महाराष्ट्र से हैं, अहमदनगर, लातूर से सोलापुर तक.
पटनी जो कि मिल्लेनियम बिज़नस पार्क के पास है, यहाँ करीब ४६७ फॅमिली थी, उनमें से ३०० लोग पलायन कर गए. कुछ घर तक पहुंचे, कुछ रास्ते में फंसे हुए हैं. तीन दिन पहले ११ परिवार का नाशिक से फोन आया था कि वो वहां फंसे हुए हैं, और कुछ परिवार अहमदनगर अपने घर तक पहुंचे हैं. इन परिवारों के पास फ़ोन चार्ज करने का जरिया नहीं है, और इसलिए संपर्क भी नहीं हो रहा. ये रोड से नहीं, जंगल के रास्ते से जा रहे थे. योंगेन्द्र का कहना है कि क्यूंकि ये गरीब और समाज के परिभाषित सभ्यता के मायने में फिट नहीं बैठते, ये समाज उन्हें हीन भावना से देखता रहा है. बड़े शहर में ये भावना कम हो जाती है, लेकिन इस समुदाय के भीतर सदियों से गरियाये जाने से बहुत अन्दर तक बैठी हुई है. आज भी पुलिस और प्रशासन इन समुदाय के लोगों को अपराधी की नजर से बहुत हद तक देखते हैं.
यहाँ जो रह गए हैं, पटनी में, उनके पास रहने को जगह भी नहीं है, न बिजली है न पानी की व्यवस्था. किसी तरह वो प्लास्टिक का पत्रा डाल कर रहते हैं. और यहाँ किसी के पास राशन कार्ड भी नहीं है. दीघा, महावीर कॉलोनी और गनपत पाड़ा में करीब 70 प्रतिशत के पास राशन कार्ड है. बाकी ३० प्रतिशत में से कुछ दुसरे जिले, गाँव के हैं, और उनका राशन कार्ड भी वहीँ हैं, और कुछ के पास राशन कार्ड भी नहीं है. वहीँ पटनी में १६७ परिवार जो पलायन नहीं किये हैं, उनमें से १४७ के पास राशन कार्ड है, वो भी उनके दुसरे जिले के गाँव का. जिन २६ लोगों का राशन कार्ड है भी वो भी अस्थायी है, जो बेघर लोगों को दिया जाता है. इन्हें हर छ: महीने में दुबारा रिन्यूअल कराना पड़ता है.
अधिकतर परिवार अपने राशन कार्ड को अपने गाँव में छोड़ कर आतें हैं, ताकि जो बचे हुए बूढ़े बच्चे वहां रह रहे हैं, उनको कम से कम वहां राशन मिल सके. अगर स्वास्थ्य सेवा की बात करें, तो पटनी और महावीर कॉलोनी में ये आस पास नहीं है, ये ४ किलोमीटर दूर है. जिन्हें रोज मर्रा की बीमारी है, वो दवा भी नहीं ले सकते. बाहर निकलने पर पुलिस मारती है, और ४० रूपए आने जाने में ही लग जायेगा. इसलिए वो खुद ही डर से बाहर नहीं निकल रहे. ” बाहर निकलेंगे तो उनको पता है कि मार खाकर ही लौटेंगे. इसलिए कोई बाहर नहीं निकल रहा”, योगेन्द्र ने बताया. बाकी जगह अर्बन हेल्थ सेंटर होने के बावजूद इनके साथ बुरा बर्ताव किया जाता है, और हकाल दिया जाता है.
२००८ में सरकार द्वारा गठित रेनके कमीशन ने घुमंतू जाति पर शोध करके बताया था कि इनमें से बहुतों के पास आइडेंटिटी कार्ड, के नाम पर कोई दस्तावेज नहीं हैं और ८९ प्रतिशत के पास किसी भी जमीन का मालिकाना हक नहीं है. इन सब हालात को देखकर योगेन्द्र इस बात पर जोर दे रहें हैं, कि इस मुश्किल दौर में राशन सबको देना चाहिए. चाहे उनके पास गरीबी का प्रमाण हो या न हो, या जाति या समुदाय विशेष का.
अभी तक टांडा ने ११०० परिवार को रोटरी क्लब (५००), आर्ट फ लिविंग (५००) और टाटा मोटर्स (२७५) के द्वारा राशन किट दिया है. और उनके पास करीब ८५००० रूपए इकठ्ठा हुए हैं जिससे वो आगे का इन्तेजाम कर रहे हैं. इस किट में ५ किलो चावल, ५ किलो आता, १ किलो तुर दाल, एक किलो नमक,दो साबुन और मसाला रहता है. इन्होने ये एक परिवार में ५ सदस्य के हिसाब से बनाया है, जो ज्यादा से ज्यादा १० दिन तक चलता है. महावीर कॉलोनी में ४०० परिवार को १६ किलो राशन दिया है, और १६७ परिवारों को पटनी में भी १६ किलो प्रति परिवार राशन उपलब्ध कराया है. इसके साथ ही डोम्बिवली पूर्व में ठाणे जिला के कोलेगांव, वाडावली, म्हाडा लेबर कैंप, शिर्धन गाँव में २४२ खाने के पैकेट भी टांडा ने बांटे हैं.
महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने तीन महीनें राशन का आश्वासन दिया फिर वो एक महीने पे उतर आई. वो भी नियम कायदे से जिस जिले, जिस गाँव के व्यक्ति हैं उनको ही देने का. केंद्र सरकार दो तरीके से भोजन दे रही है एक अटल आहार योजना और दूसरा शिव आहार योजना. जिसमें ५ रूपए प्रति प्लेट में दो टाइम खाना के नाम पर खिचड़ी देते हैं वो. अभी अटल आहार योजना के तहत एक समय खिचड़ी दिया जा रहा था, बिना पैसा लिए मजदूरों को, कंस्ट्रक्शन वर्कर और बेघरों को. शुरुवात में अच्छी खिचड़ी थी. बाद में बीरबल की बनाई कि क्या किया कि रास्ते लग गए. इतना ख़राब क्वालिटी था कि लोगों को उलटी, और पेट दर्द की शिकायत आने लगी.
और योगेन्द्र ने ये बात बताई की कोई भी संस्थान कैश डोनेशन देने के लिए तैयार नहीं है, जिससे कैश इन परिवारों को दिया जा सके. टांडा इन परिवारों को कम से कम २००० रूपए प्रत्येक परिवार डायरेक्ट कैश देना चाहता है. उनका ये तर्क है कि पहला कि राशन किट से आप सब्जी, दूध, दवाई नहीं खरीद सकते. ये सूखा राशन है. दूसरा कि अधिकतर लोग जो बस्तियों में रहते हैं उनके घर केमालिकों ने एक महिना तो सहयोग किया, पर उनकी भी कमाई का आधार रेंट लेने से ही है, जो प्रत्येक परिवार में ४००० रूपए से ८००० रूपए तक जाता है.
घुमंतू जाति समाज के हाशिये पर हैं. उन्होंने कभी रस्सी पे चलकर, पुराने गाने बजाकर, गाकर, ट्रेनों में झाड़ू लगाकर, कुआँ खोदकर (वडार), बांस की टोकड़ी बनाकर, किचन का सामान बनाकर, कभी हंसाया तो कभी जरूरी कामों के औजार और चीजें बनाकर समाज की जरूरतों को पूरा किया. खेती के उपकरण से लेकर, पानी का इन्तजाम. अब इस महामारी में खाना-पीना और गाना बजाना नाचना, यानि स्वास्थ्य और मनोरंजन से और कुछ आपको जरूरी चीज समझ आती है क्या? लेकिन समाज ने इन्हें हमेशा से दुत्कारा है, प्रशासन और पुलिस ने बेवजह उन्हें परेशान किया है, जेल में रखा है. अभी भी वो आलिशान शहरों के कोने में रहते हैं, और वहीँ से कुछ काम धाम करके वापस अपने गाँव चले जाते हैं. गाँव में भी वो एक कोने में रहते हैं, जहाँ पानी, सीवर की वयवस्था ज्यादातर नहीं होती. न गाँव देता आया है न शहर, उन्हें इज्जत, सिर्फ लिया गया है अब तक उनका खून, और पसीना.
टांडा उन्हें खुद के पैरों पे खड़े होने की और आत्म सम्मान विकसित करने की राह पर है. पर रास्ते में बहुत अर्चने हैं. दस्तावेज बनवाना, पुलिस और समाज की कुंठा से बचाना, एक आत्म सम्मान वाली बुनयादी जिंदगी की तरफ बढ़ना.
अभी कोरोना महामारी के वक़्त टांडा के पास नवी मुंबई में ३५०० परिवार के राशन उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी है और करीब ७ लाख रूपए जुटाने की. योगेन्द्र ने ये भी कहा कि टाटा मोटर्स की तरफ से १.९ लाख रूपए आने वाला है, जिससे २७५ राशन किट आयेंगे. पर बाकी कहाँ से आएगा? टांडा की मदद करने के लिए योगेन्द्र घोरपड़े से आप संपर्क कर सकते हैं. इनका ऑफिस टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, देवनार में हैं.
गौर करने वाली बात ये भी है कि क्या टाटा सामजिक विज्ञान संस्थान, जिसके अन्दर कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिल्टी (सी,एस.आर.) का हब है, वो इन सब मामलों में क्यूँ सोया हुआ है? क्यूँ नहीं वो टीस के प्रोजेक्ट्स जो कि अधिकतर हाशिये के समुदाय के साथ जुड़े हुए हैं, वहां तक मदद पहुचा रहा? कब तक हवा हवाई प्रोजेक्ट में, वर्कशॉप में, वो अपना दूकान चलाते रह जायेंगे? उनकी होने की बुनियाद टीस के जमीन पर काम की वजह से ही तो है, जिसको वो कारपोरेटों से भुना रहे हैं. ख़ैर उनको गरियाने से अच्छा पहले सामने जो हो सकता है वो किया जाये.
आप घुमंतू समुदाय की मदद के लिए, टांडा, टीस के योगेन्द्र घोरपड़े से इस नंबर पे संपर्क कर सकते हैं.
फोन नंबर : +91 9821903220
ये इंटरव्यू वडार घुमंतू समुदाय का है जो लातूर जिले, महाराष्ट्र से हैं. इनका काम कुआँ खोदने का था, और अब ये शहर शहर पलायन करते हैं, काम के लिए.