Mon. Dec 23rd, 2024

चूने वाला प्रजातंत्र

By द सभा Nov1,2015
चुने वाला प्रजातंत्र

चुने वाला प्रजातंत्र

हमारे भारत की आर्थिक निति बहुत हद तक एक इफ़ेक्ट का अनुसरण करती है जिसका नाम है चूने वाला इफ़ेक्ट. इसके हिसाब से दुनिया के अनेक प्रजातंत्र चल रहे हैं , जिनको भारत भी कई मायनो में मानने लगा है.

यह इफ़ेक्ट कहता है कि विकास करो, अमीरों का ही करो वो अपने आप गरीबो तक चुएगा. इसके तहत कई सरकारों ने बड़ी बड़ी कम्पनियों के टैक्स माफ किये . उन्हें एक खिड़की दी, जहाँ वो सारे फॉर्म जमा करें, ताकि इधर से उधर दौड़ना न पड़े, उन्हें बहुत ही सस्ते दामों में जमीन उपलब्ध कराये, ताकि उनका विकास गरीबो तक चू जाए.

मुंबई शहर में ही देखा जाए तो गरीब हीरानंदानी को ४० पैसे एकड़ में जमीन दी गई, ताकि वो गरीबों के लिए घर सस्ते वाजिब दामों में उपलब्ध करा सकें. और आज देखा जाए तो मेरे खूब सारे गरीब ऍम बी ए वाले दोस्त वहां रह रहे हैं. बड़ी बड़ी कंपनियों में काम करके इस इफ़ेक्ट को चुआने की सरकार की पूरी मदद कर रहे हैं.

इस इफ़ेक्ट की उपज से निकलें हैं हमारे नए निति आयोग के मुख्य अधिकारी, प्न्नेग्यर. वैसे मनमोहन सिंह, हो ये अरुण जेटली, या फिर चिदम्बरम , ये सारे इसी चूने वाली सोच के उदहारण हैं. ये जहाँ से पढ़ लिख के आयें हैं, जी हाँ  विश्वविद्यलयों से, वहां इसी मानसिकता की खेती होती है. जहाँ खेत से बढ़कर हो जाता है पैसा, विकास का सीधा जुडाव हो जाता है , उद्योगपतियों के विकास से.

हाँ तो भाई इसमें गलत ही क्या है , उद्योगपति का विकास होगा तो बहुत सारी नौकरियां बढेंगी, नौकरियों के साथ गरीबो का विकास साथ में हो जायेगा. पर ऐसा हो रहा है क्या?

नौकरियों में ठेका मजदूरी बढती जा रही है और उधोग प्रकृति की बिना सोचे समझे वाट लगाये जा रहे हैं. नौकरी मिलती है भी तो सफाई कर्मचारी की, और लूट जाता है पीने का पानी, ताजी शुद्ध हवा, और रसायन मुक्त खाद्य पदार्थ.

तो फिर ये विकास चू किधर रहा है ?

अगर विश्व के अनेक प्रजातंत्रो में ऐसा ही विकास हो रहा है तो जाहीर ही है चाहे आप किसी को भी वोट कीजिये , वो भविष्य में गरीबों पर विकास चूवाने का ही कल्पना कराएगा. क्योंकि आर्थिंक नीतियाँ इसी विचारों की आड़ में गरीबों का खून चूसती है और गैर बराबरी को बढाती रहती है.

जब तक आर्थिक नीतियाँ प्रकृति और आखरी पायदान में खड़े व्यक्ति को नजरंदाज़ करती रहेंगी, तब तक तो ये विकास ऐसें ही जुगाली करता रहेगा.
अमीर को पैसा देना या टैक्स माफ करना उच्च निति में, और गरीब को सब्सिडी देना कूट नीति में ही गिना जायेगा.

नीतियों की सूरत और उनकी परछाई कई मायनो में उनकी नीयत को ही ढक देती है . और ये ज्यादा महत्व रखता है की बोल सूट वाला रहा है या पजामे, लुंगी वाला. मीडिया का ध्यान और उनकी सोच इसी नीयत को ढकने का काम करती है. क्यूंकि उनका मालिक इन्ही चूने वाले प्रजातंत्र का पैसा, फेके जा रहा है, और एक नीति को जबरदस्ती नागरिकों के सर मढ़ रहा है.
नागरिक तो वही न सोचेगा जो उसे दिखाया और सुनाया जा रहा है.

अधिकतर मीडिया का व्यक्ति ऊपरी वर्ग तथा जाति से आतें हैं. उनके जीभ की लार किस तरफ चुएगी, ये तो खुद ही समझा जा सकता है.

तो एक तरफ है चुने वाला प्रजातंत्र और दूसरी तरफ चूने हुए लोग, और इस पूरे ढांचे को बरक़रार रखने वाला मीडिया.

अगर इस प्रजातंत्र को चलाना है, तो हमें बार बार चूना लगवाने से बचना पड़ेगा, और मीडिया से लेकर इसके ढांचे में बदलाव करने पड़ेंगे. संविधान लोगो के लिए बना है , लोग संविधान के लिए नहीं . इसमें कहीं न कहीं तो खोट है , जो कि गैरबराबरी को बढ़ावा मिलते जा रहा है, और किसान मजदूर का पसीना किसी के स्विमिंग पूल को भरे जा रहा है.

जब तक विविधता प्रजातंत्र तथा मीडिया में नहीं आएगी तब तक इनके ढकोसले कायम रहेंगे जहाँ चंद लोग ही अरसे से इसे दीमक की तरह खाये जा रहे हैं और अपने ही परिवार के लोगों को राजनीति और मीडिया में उतारे जा रहें हैं.

इसका इलाज तो समुदाय ही कर सकता है. जो कि अपने बीच के उम्मीदवार को चुनाव लड़ाए, मीडिया में पहुचाये और अपनी आवाज की जिम्मदारी खुद उठाये. जब तक राजनीति और संचार की शक्ति अनेक लोगों में बटेगी नहीं , और समुदाय उन शक्तियों को बार बार बदलेगा नहीं , वो चूना लगाती रहेंगी,

कभी हाथ से तो कभी कमल के फूल से.

Related Post

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *