महाराष्ट्र में ही नहीं पुरे भारत में पहले से ही सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर गाय की हत्या पर पाबन्दी लगी हुई है। क्योंकि ये भारत के एक समाज वर्ग की भावनाओ से जुड़ा हुआ है। और इसका हमारे देश का हर समाज पूरी तरह से समर्थन करता है जिसका उदाहरण एशिया के सबसे बड़े कत्तलखाने में (जो की मुंबई के देवनार में है) देख कर लगाया जा सकता है। इस कत्तलखाने में आजतक एक भी गाय को नहीं काटा गया। यहाँ पर केवल उन्ही बैलों को काटा जाता है जो कि किसी भी रूप में कृषि में प्रयोग में नहीं लाये जा सकते।
परन्तु हाल ही के महाराष्ट्र सरकार के एक फैसले ने बैलों की हत्या पर रोक लगा दी है। जिससे लाखो लोगों का घर उज्जड चूका है। लाखो युवक बेरोजगार हो चुके है। किसान जो की गाय पालते थे। बछड़ा होने पर उसे साल दो साल में बेच कर कुछ चंद कमाई कर लेते थे। परन्तु अब उनकी ये कमाई भी छूट चुकी है। अब उन्हें गाय पलना सरासर बोझ लगने लग गया है। जिसका छोटा सा वर्णन अग्रलिखित है।
(१) देवनार कत्तलखाने में गाए नहीं काटी जाती। जिसका हम पूरा समर्थन करते है। परन्तु पिछले अनेक वर्षों से बैल काटने का काम करते आ रहे सैंकड़ो मज़दूरों के भविष्य का क्या होगा, इसका जवाब महाराष्ट्र सरकार ने इस कानून में नहीं दिया है।
(२) सूखे तथा प्राकर्तिक आपदा के कारण बहुत से किसान दयनीय स्तिथि में है। ऐसे में बूढ़े तथा अस्वस्थ बैल को चारा खिलाना किसानो के लिए असंभव हो गया है। इस फैसले के वजह से किसानो की आत्महत्या में वृद्धि हुई है। किसानो की इस दुखद हाल का सरकार ने इस कानून में कही भी जिक्र तक नहीं किया है। बूढ़े तथा अस्वस्थ बैलों का क्या किया जाए इसका इस कानून में कही भी उल्लेख नहीं है।
(३) पशु देखभाल विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार आर्थिक वर्ष २०१३-१४ में ३ लाख २६ हज़ार बैल तथा बछड़ों को कत्तलखाना लाया गया। किसान मुख्य रूप से काम में ना आने वाले जानवरों को ही बेचता है। बैलों की हत्या पर पाबन्दी से बूढ़े, कृषि उपयोग में ना आने वाले तथा अस्वस्थ बैलों को चारा खिलाने का सारा भार किसान पर बढ़ने लगा है। एक पशू को रोजाना ६ किलों सुख चारा लगता है। तीन लाख जानवरों के लिए ६ लाख १९७ करोड़ चारे का खर्च मतलब कि चारे का कुल खर्च १९७ करोड़ रुपए का आने वाला है। एक साल में बैल को दो बार दवाई देनी पड़ती है। इसमें एक दवा का खर्च ६ रुपए है जो सभी जानवरों के लिए ३६ लाख से ज्यादा पड़ता है। इस आर्थिक बोझ की वजह से गरीब किसानो तथा उनके परिवार वालों को आत्महत्या की तरफ जाना पड़ सकता है। जिसकी जिम्मेदार केवल और केवल महाराष्ट्र सरकार की होगी।
(४) इसके अलावा गरीब मज़दूर, किसान, दलित तथा जनजातीय लोगों के लिए ४५० रुपए किलो में मटन खरीद पाना असंभव है। जबकि १८० रुपए किलो का बैल का मटन उनके लिए सस्ता पौस्टिक आहार है। गरीब मासाहारी लोग अपने परिवार को सस्ता पौस्टिक आहार कैसे खिलाये इसका जवाब भी सरकार ने नहीं दिया है।
(५) महाराष्ट्र में लाखों लोग चमड़े के उद्योग में कार्यरत है। इस तरह की पाबन्दी का सीधा असर उनके धंधे तथा व्यवसाय पर पड़ने वाला है। इससे लाखो लोग बेरोजगार हो सकते है। जिससे उनके परिवार तथा बच्चो का भविष्य खतरे में है। सरकार शायद इन लोगों के चेहरे पर ख़ुशी नहीं देखना चाहती।
हमारी महाराष्ट्र सरकार से बस एक छोटी सी गुजारिश है कि आप अपनी राजनीती की रोटियां सेकने के लिए लाखो लोगों की रोजी रोटी क्यों छीनना चाहते है। क्या देश का हर नागरिक ख़ुशी से अपना रोज़गार करे तथा ख़ुशी से अपना पारम्परिक खाना खाए, ये सरकार की जिम्मेदारी नहीं ? क्या सरकार जनता का संवैधानिक हक़ छीनना चाहती है ? क्या हर नागरिक का आशु पोंछना सरकार का काम है या फिर अपनी औंछी राजनीती के लिए लाखो लोगो का घर उजाड़ना ?
सवाल तो कई सारे है पर क्या हमारी सरकार इनका जवाब देना चाहेगी या फिर अपनी औंछी राजनीती बरकरार रखेगी ये तो बस भविष्य ही बताएगा।
तब तक हम उन बदकिस्मत लोगों के अच्छे दिन के लिए भगवान से बस प्रार्थना ही कर सकते है।