सरकार रे झूठ मत बोलो, घर के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है, हमें पैदल ही जाना है. कोरोना की खबर देख कर सोया, न एअरपोर्ट पे टेस्टिंग की, फैलने के बाद प्रेस में और टी.वी में रोना रोया, कि आपकी भलाई के लिए, गली, मोहल्ले, शहर, चबूतरा लॉक डाउन हो जायेंगे. रिश्ते में तो आप सरकार लगते हैं, लेकिन न साइंस की कद्र, न पेट की, ऊपर से थाली, दिया सुपर. हमें कोरोना से डर लगता है साहब, मगर भूख से, तिरस्कार से, और सरकार की बेवकूफी से उससे ज्यादा.
सरकार की लापरवाही से ईलाज तो नहीं, पर उसकी नीतियों का जो बवासीर फैल रहा है, उसका उपाय नागरिक ही कर सकते हैं. शहरों की बीमारी, जो ज्यादातर एअरपोर्ट से आई है, उससे गाँव का क्या लेना देना? ज्यादा से ज्यादा ये किया होता कि गाँव का क्लस्टर बनाकर उसे सील कर देता. और बाहर से जो भी आता, उसे स्कूल में या सामुदायिक भवन में रुकवाते. पूरा गाँव, क़स्बा में कर्फ्यू लगाना का क्या लॉजिक है, भाई साहब.
यहाँ जब हम अपने मित्र हरिश्चंद्र बिंद, जो की मिर्ज़ापुर से हैं, गाँव गाँव में घूम कर मुसहर, सपेरे और हाशिये के अनेक समुदाय को राशन बाँट रहे थे, तब अचानक से पुलिस रोड पे कूदा, और उसके चेहरे में अलग ही ख़ुशी और हैवानियत थी, कि कोई मिला है ठोकने को. फिर राहत सामग्री की बात बताने पर हमें जाने दिया गया. गाँव में हर समाज के लोग परेशान हैं. एक तरफ पुलिस का डंडा और खौफ है, और दूसरी तरफ खेती के कटाई, सब्जी बेच पाने में मुश्किल. मुसहर जाति कि लोग बनारस आकर दातुन और महुआ के पत्ते जो कि पान को लपेटने में इस्तेमाल होता है, बेचते थे. अब वो ये सब नहीं कर पा रहे हैं. ऊपर से ठाकुरों का गाँव में वर्चस्व है, जो कि उनकी रोज मर्रा की जिंदगी को और मुश्किल बना रहा.
दिया, और थाली के बाद ये सोचिये की अगर मजदूर खेत में जाने से डर रहा है, फसल कटने को तैयार है, तो आने वाले दिनों में जो घर में टुकुर टुकुर खा रहे हैं, वो अनाज कहाँ से आएगा? शहर में पढ़ा लिखा व्यक्ति तो पुलिस से बहस नहीं कर पाता, गाँव का व्यक्ति कैसे करेगा, कि सरकार ने खेती सम्बंधित कामों को करने में छुट दी है.
पुरुलिया में घुमंतू जाति के ३३ सबर समुदाय के साथ जब बातचीत हुई १० अप्रैल को, प्रक्सिस और राष्ट्रीय घुमंतू समिति संस्थान के द्वारा, तो पता चला कि ५ महिला को जन धन खाते में कुछ नहीं आया, १३ लाभार्थी वृध पेंशन में से शुन्य को मिला, ११ उज्ज्वला योजना लाभार्थी में भी शुन्य को लाभ मिला, प्रोचेस्ता योजना दिहाड़ी मजदूर में भी किसी को १००० रूपए नहीं मिला, ३२ नरेगा लाभार्थी का भी कुछ भला नहीं हुआ. सरकारी तंत्र और मन्त्र काम नहीं कर रहा, और जो लोग खुद से कुछ करते थे, सब्जी बेचते थे, या कोई सामान वो भी नहीं कर पा रहे. इस से उधार, और जमीन गिरवी देने का खतरा भी बहुत बढ़ गया है.
सरकार को अपनी औकाद पता है, कि वो सबको आराम नहीं दे सकती, सबका साथ सबका विकास नहीं कर सकती. जो नागरिक खुद से अपने बल बूते पे जिन्दा हैं, और यहाँ तक की बड़े बड़े शहरों के खाने का प्रबंध करते हैं, उनसे ये नाइंसाफी क्यूँ ? सरकार को चाहिए कि वो ये तीन कदम तुरंत उठाये.
१. गाँव गाँव में पिछले एक महीने से जो आये हैं, उनकी सूचि बनाये और उन्हें अलग करे. जो कि प्रधान,लेखपाल और पुलिस के द्वारा हो सकता है. जो आये हैं, या जिन्हें साँस की समस्या आ रही है, उन्हें अलग कर धीरे धीरे गाँव को कर्फ्यू मुक्त १४ अप्रैल से पहले करे.
२. सरकारी वाहन, जिसमें सब्जी और अनाजों की रेट लिस्ट लगी हो, उसे गाँव गाँव में भेजे, ताकि जिन्हें बेचना है, वो बेच पायें. खेती में जो औजारऔर सामग्री लगती है, और जानवरों के चारा के लिए भी वाहन उपलब्ध कराया जाये.
३. शहरों में टेस्टिंग, रैंडम टेस्टिंग का ढ़ोल पीटा जा रहा है. आखिर शहर कौन सा जरूरी काम करता है, जो कि गाँव से भी जायदा जरूरी है? गांवों में जो व्यक्ति बाहर है, जो सब्जी बेच रहा, दूध बाँट रहा, उनमें से हर १० हज़ार, २० हजारों, जो भी सरकार को बुझाये, टेस्ट करके, बाकी लोगों को आजाद करे सरकार.
अगर सरकार गाँव वालों के लिए नहीं सोच रही, तो कर्फ्यू बिना कोई सर पैर कि निति के क्यूँ पालन हो? यहाँ रमना, मदरवा, छितुपुर बनारस के गाँव में, और यहाँ तक की शहर बनारस में, राशन कार्ड को लेकर अनेक समस्या है. किसी का नाम नहीं चढ़ा है, किसी का अंगूठा नहीं मैच खा रहा, किसी को पूरा राशन नहीं मिल रहा, किसी का कार्ड जब्त हो गया, और किसी की कोठेदार से लड़ाई हो गयी, १५ किलोमीटर कचहरी के चक्कर काटने के बाद भी राशन कार्ड नहीं बना. और जिस बायो मेट्रिक से राशन मिल रहा उससे संक्रमण का खतरा और ज्यादा है. सरकार क्यूँ आधार कार्ड स्कैनर या दुसरे किसी उपाय से राशन नहीं दे रही. या तो सरकार मान ले की गाँव में संक्रमण नहीं है, नहीं तो राशन बायो मीट्रिक से देना बंद कर दे.
सरकार कर्फ्यू ऐसे बढ़ा रही है, जैसा कोई बहुत बड़ा काम कर रही हो. आंकड़ा ने देके, गाँव गाँव में टेस्टिंग न करके सैंकड़ो लोगो के साथ खिलवाड़ कर रही है सरकार. सरकार के फरमान केवल गाँव पहुँच रहे, लोगों के अरमान और सम्मान का क्या? सूरत शहर में बिहार, पूर्वांचल, ओडिशा, झारखण्ड के मजदूर फंसे हुए हैं, न उन्हें उनकी बकाया दिहाड़ी मिली ना ही भर पेट भोजन. अगर पेट की आग को आग लगाकर ही जाहिर करने पे मजबूर किया जायेगा, तो क्या करेगा मजदूर? यहाँ बनारस कोल्कता बाय पास के पास राजस्थान के चार मजदूर मिले थे, जिन्हें बलोतरे शहर, राजस्थान के बारमेर जिला के कलेक्टर ने शहर के १० किलोमीटर बाहर धमका के भगा दिया. वो पैदल यहाँ आये, और गया, बिहार की ओर निकले. उन्हें किसी तरह ट्रक पे लदवाया गया. वहां पहुचे तो डोबी, गया के पुलिस ने उन्हें बिना खाना दिए दो दिन हिरासत में रखा. फिर वहां से उनका यहाँ बनारस में फोन आया, कि हमें भूख लगी है, कुछ कीजिये.
हाल ही में मध्य प्रदेश में ये मामला आया, कि बड़े साहब के खुदगर्ज सुपुत्र विदेश से लौटे, और यहाँ अपने औधा का फायदा उठाकर एअरपोर्ट से एच् कर निकल लिए, जिसके कारण पूरा का पूरा विभाग संक्रमित होने की आशंका से अलग रखा गया क्यूंकि, पिताश्री सरकारी अफसर थे. बड़े लोग बड़ी बातें.
कहीं भारत में भी इराक के बगदाद की तरह अगर जुलुस निकलने लगा तो.
इसमें वो कह रहे हैं, कि ओ कोरोना, क्रांतिकारियों की सुनो. मार दो उनको, जिन्होंने हमसे लूटा है. मार दो उन्हें जिन्होंने हमें मारा है, क्यूंकि हम अपने देश से अपार मोहब्बत करते हैं. हमारी मदद करो.
माना, माना राहत का छुपाना भी है राहत, चुपके से किसी दिन जताने के लिए तो आ…आप से पहले कहीं कोरोना गरीबों का मसीहा न बन जाये, कुछ तो, कुछ तो, रंजीश ही सही, कुर्सी बचाने की लिए तो आ…
अगर सरकार गांवों को आजाद नहीं करती और फंसे हुए मजदूरों का ख्याल नहीं रखती तो उसे दो मीटर की दूरी नहीं, सैंकड़ो की पेट के आग, मीलों दूर फेक देगा. न रहेगा तख़्त, न कोई ऑनलाइन ओपन ख़त, बस हर खता का खून सड़क पर लथ-पथ, डिजिटल इंडिया,अस्पताल और संसद के बाहर बिना पी.पी.इ के.