एक दिन
जब सारे ग़रीब
सारे मज़दूर
सारे मज़लूम
मुत्तहिद हो जाएंगे
खड़े हो जाएंगे
हुक्मरानों के खिलाफ़
ज़ालिमो के खिलाफ़
उमराओं के खिलाफ़
तोड़ कर रख देंगे
सारा निज़ाम
गद्दी के हर रेशे को
नोच कर रख देंगे
मगरउनके मुत्तहिद होने से पहले
ये सारे ज़ालिम
ये सारे हुक्मरां
ये सारे उमरां
और वो
जो दरमियानी लोग हैं
कुत्ते बन गए हैं बेचारे
जो कहीं के नहीं हैं
किसी गटर के नहीं हैं
किसी घर के नहीं हैं
किसी जाम ओ मय के नहीं हैं
मिल कर एक छत के नीचे
एक लज़ीज़ मिठाई बनाई
जिसको दबाओ तो रस निकलते हैं
मगर क़तरों में टपक कर
और बड़े प्यार से
बड़े एकराम से
बड़े एसार से
ज़रा ज़रा चखाने लगे
चटाने लगे
उन ग़रीबो को
उन मज़लूमों को
उन मज़दूरों को
ताकि बस जिंदा रहे
और साँस चलती रहे
मगर ये बेचारे
ज़माने के मारे
क़िस्मत के मारे
चाटने लगे क़तरा क़तरा
उस मिठाई का रस
और कभी खड़े न हो सके
कभी मुत्तहिद न हो सके
तो निज़ाम कैसे बदलता
–असरारुल हक जीलानी