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इट्स अ मैन’स वर्ल्ड (ये संसार पुरुष-निर्मित और केन्द्रित है)

By द सभा Nov1,2015
ये संसार पुरुष द्वारा निर्मित है

feminism

अल-मुदेना , स्पेन देश की एक एक्टिविस्ट

अमरीकी गायक और संगीतग्य जेम्स ब्राउन का 1966 में गाया गया प्रसिद्ध गाना “इट्स अ मैन’स वर्ल्ड” (ये संसार पुरुष-निर्मित और केन्द्रित है) आज भी अपनी प्रासंगिकता बरक़रार रखता है. कारण, चाहे भारत हो या पश्चिमी देश, या दुनिया का कोई भी कोना—ये दुनिया और समाज पुरुष केन्द्रित ही है!

अभी गए साल स्पेन में 54 महिलाएं अपने पतियों/प्रेमियों के हाथों मौत की गोद में सुला दी गयीं. स्पेन से जुड़े ऐसे नृशंस तथ्य तो केवल एक झलकी भर हैं, दुनियाभर में औरतों पर होने वाले अमानवीय अत्याचारों की….
•विश्वभर में ऑनर किलिंग की घटनाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है. हर साल तकरीबन 5000 महिलाऐं कोरी प्रतिष्ठा की बलि चढ़ती हैं, जिनमें से लगभग 1000 ऐसी मृत्यु भारत में दर्ज़ की गयीं है (सौजन्य: Honour Based Violence Awareness Network). दुखद बात यह है कि इस भयावह कृत्य को मानवाधिकार का हनन नहीं माना जाता और अपराधी अक्सर बिना सज़ा पाए बच निकलते हैं.

•खतना (स्त्री जनांग का कुछ हिस्सा काट देना, जिसका सम्बन्ध उनकी शारीरिक विलासता पर काबू रखना है), जैसी अमानवीय प्रथाएं आज भी दुनियाभर के कई समुदाओं में प्रचलित हैं. वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन की रिपोर्ट के अनुसार, ये प्रथा अफ्रीका और मध्य-पूर्व के 29 देशों (मसलन यमन, सऊदी अरब और कुर्द के कुछ समुदायों) में आज भी जारी है. संयुक्त राष्ट्र ने उजागर किया है इस्लामी कट्टरवादी गुटों ने इस वर्ष से खतना प्रथा को पुनः इराक़ में शुरू करवाया था.

•अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं का हर वक़्त बुर्क़ा पहनना अनिवार्य है, जिसके कारण उन्हें स्कूल जाने में, और यहाँ तक कि लिखना-पढ़ना सीखने में भी काफ़ी दिक्कत का सामने करना पड़ता है.

•सऊदी अरब के कानून में औरतों को गाड़ी चलाने के अधिकार का प्रावधान नहीं है, और सफ़र करने, उपचार हेतु अस्पताल जाने और सड़क पर चलने तक के लिए उनकके साथ किसी पुरुष सम्बन्धी का होना अनिवार्य है.

•अधिकतर प्रगतिशील देशों में एक-तिहाई लड़कियों की शादी 18 वर्षों से पहले कर दी जाती है, जबकि 9 में से हर एक लड़की पंद्रह साल की उम्र से पहले ही दुल्हन बना दी जाती है. (सौजन्य: अंतर्राष्ट्रीय स्त्री-सम्बन्धी शोध केंद्र-ICRW).
प्रगतिशील देशों में महिलाएं भले ही प्रगति से कदमताल करते हुए सरकारी कार्यालयों से लेकर कला और मीडिया के क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा रही हैं, परन्तु शारीरिक सौन्दर्य के मापदंडों की दासता की बेड़ियाँ उन्हें अभी भी जकड़े हुए हैं. केवल मेधा और समझदारी ही काफ़ी नहीं; स्त्रियों की सफलता का सूची में चमचमाती-तेजोमयी त्वचा, लहराते बाल और मोहक व्यक्तित्व का होना भी अनिवार्यता सी हो गयी है.

ये सभी तथ्य और सामाजिक परिवेश विश्वभर में व्याप्त पितृसत्तात्मकता की और इशारा करते हैं, जो महिलाओं की विचारधारा में सदियों से संचारित की गयी है. बचपन से ही लड़कियों को सुशील, संवेदनशील और संस्कारी बनने की बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती है, जिसमें गुड्डियों से खेलना, ज़िद नहीं करना इत्यादि शामिल रहता है. भारतीय और पाश्चात्य सिनेमा भी महिलाओं की आदर्श छवि को खूब चमचमाते तरीके से दर्शकों के सामने परोसता है. इस मुद्दे पर महिलाओं और पुरुषों-दोनों को ही जागरुक होने की आवश्यकता है. पुरुषों को यह समझना चाहिए कि कई सामाजिक प्रतिष्ठाएं और अधिकार उन्हें केवल पुरुष होने के कारण मिले हैं, जिसके पीछे सदियों का सामाजिक असंतुलन और भेदभाव छिपा है. सहस्त्र वर्षों के अत्याचार, शोषण, हत्या और त्रास का दंश एक दिन तो क्या, एक जीवनकाल में भी नहीं मिटाया जा सकता.
पितृसत्तात्मकता के जीवंत उदहारण हमें हमारी दैनिक जीवन में ही आराम से मिल जाते हैं. मसलन, कार्यालयों में शीर्ष पद पर कौन विराजमान रहता हैं? घर पर रोज़ सबके लिए खाना कौन बनाता है? खेल की दुनिया के चमकते सितारे कौन हैं? या फिर, मंच पर बोलने पर किसकी बात को ज़्यादा गौर से सुना जाता है? इन सभी प्रश्नों के उत्तर निस्संदेह ही पुरुष की ओर इशारा करते हैं. शारीरिक संबंधों में भी, सम्भोग/यौन क्रिया पुरुष की इच्छानुसार ही क्यों शुरू या समाप्त होती है? ऐसा क्यों है की आज नेल्सन मंडेला को तो सारा विश्व भावपूर्ण आदर अर्पित करता है, परन्तु अमरीकी-अश्वेत चेतना का बिगुल बजाने वाली सामाजिक-कर्ता रोसा पार्क्स को क्यों अक्सर भूल जाता है? और, विश्व के अधिकतर एक-पंथी धर्म किसी पुरुष को ही उद्धारक मानकर क्यों पूजते हैं?……इन सवालों की सूची शायद अंतहीन है!
बात केवल सामाजिक और मानसिक परिस्थितियों पर आकर ही नहीं रुक जाती. संयुक्त राष्ट्र के तथ्यों के अनुसार, दुनिया की 70 प्रतिशत महिलाएं आत्मीय संबंधों में शारीरिक या यौन उत्पीड़न का दंश भोगती हैं. यह तो सिर्फ़ कागज़ों पर लिखे आंकड़े हैं; in आंकड़ों से परे तस्वीर हमेशा ही अधिक भयावह और दुखद होती है.
परन्तु, समाज में बदलाव की बहती बयार को नकार देना भी बेमानी होगी. आज दुनियाभर में औरतें अपने साथ होते अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर रही हैं. इसका एक प्रमुख उदहारण इराक में इस्लामी कट्टरवादिता के विरुद्ध में चल रहा कुर्दी महिलाओं का राष्ट्र-व्यापी विरोध है. चाहे रूस की ‘पूसी रायट’ मुहिम हो, या फिर भारत के छोटे से गाँव से शुरू हुआ ‘गुलाबी गैंग’ (जिसकी सदस्यता आज 400 पार कर गयी है)—उत्पीड़न के खिलाफ विरोध के स्वर दुनिया के हर कोने में प्रखर हो रहे हैं.

यहाँ स्पेन में भी महिलाएं भेदभाव विरोध में सड़कों पर उतरने से गुरेज़ नहीं करतीं. अभी हाल ही में राजधानी मैड्रिड की कुछ महिलाओं ने शहर में जगह-जगह बैनर और झंडियाँ लगायीं, जिनपर सड़क पर छेड़खानी करने वाले मनचलों को कड़ी चेतावनी भरे शब्द लिखे गये थे.

समलैंगिक संबंधों पर आज भी समाज का रुख सामंतवादी रूढ़ियों का परिचायक है, इसके पीछे समाज की पारिवारिक-सम्बन्ध शिला को बचाए रखने की भरसक कोशिश साफ़ झलकती है, क्योंकि इस संस्था के द्वारा ही समाज में स्त्री-पुरुष को उनके लिंग अनुरूप आचरण करने के लिए निर्देशित किया जा सकता है. परम्पराओं द्वारा पहनाये गये आचरण के पहरावे को कोई सवाल झेले बिना आगे बढ़ाने का सर्वोत्तम तरीका विपरीत-लैंगिक संबधों की डुगडुगी पीटना ही समझा गया है. वैसे भी, वैचारिक उपभोक्तावाद के अंतर्गत सदियों से चली आ रही इस व्यवस्था को बेचना कुछ कठिन काम नही है.

अतः, इसी रूढ़िवादी और असंतुलित विचारधारा के विरुद्ध उठाया गया हर एक कदम महत्त्वपूर्ण है. स्पेन में अभी कुछ दिन पहले दो भारतीय महिलाओं ने बस में छेड़खानी करते हुए युवकों से जमकर आमना-सामना किया. हमें समझना होगा कि कोई भी समाज स्त्री-पुरुष में भेदभाव को लेकर न्याय और सशक्तिकरण की राह पर नहीं चल सकता. यह पप्रक्रिया अवश्य ही मुश्किल और लम्बी, पर इसपर अग्रसर होने के लिए स्त्री और पुरुष, दोनों को हाथ मिलाना होगा. पुरुषों में यह संवेदना संचारित करनी होगी कि अत्याचार केवल शारीरिक त्रास देने की परिधि तक ही सीमित नहीं होता; महिलाओं के साथ हो रहे भेदभाव के विरोध में आवाज़ न उठाना, और उनके अधिकारों और सशक्तिकरण की मांग में भागिदार न बनना भी उन्हें पितृसत्तात्मक अन्याय में भागिदार बनाता है. महिलाओं की अभिलाषाओं और सपनों को अंकुरित होने के लिए उन्हें उनके हिस्से की ज़मीन और आसमान देना ही होगा, ताकि वो लीक से हटकर अपनी इच्छा के अनुरूप जीवन जी सकें. आखिर, जिस समाज में महिलाओं को विचारों की स्वतंत्रता नही दी जाती, वह समाज कभी सभी नहीं कहला सकता.

संवाद- मोहिनी मेहता

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