हम उस बिहार की चर्चा कर रहे है जहां से भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा थमी थी। वही लालू जिन्होने आडवाणी को गिरफ्तार कर रथ यात्रा को थाम लिया था । अगर यह नहीं होता आज के समय की भारत की कहानी कुछ और कहती । लालू की पार्टी राजद 27 साल से अपना असर भारतीय राजनीति मे दिखा रही है।लालू-नीतीश के रिश्ते की कहानी किसी फिल्म स्क्रिप्ट से कम नहीं है। 1970 के दशक में लालू और नीतीश पहली बार जयप्रकाश नारायण के सोशलिस्ट आंदोलन के दौरान साथ आए। सरकार किसी की भी हो राजद के मंत्री बनना लगभग तय ही रहता था।
बीते 27 मे से 22 साल राजद सत्ता के साथ रही वही 5 साल विपक्ष की भूमिका में । यह भारतीय राजनीति के लिए भी एक सोचनीय प्रश्न है कि लालू जैसे राजनेता और बिहार मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के बीच ऐसा क्या हो गया कि एक दोनों एक दूसरे से अलग उसी भाजपा के लिए हो गए जिसके विरुद्ध उन्होने एक होकर बिहार में चुनाव लड़ा था।
मुख्यमंत्री का इस्तीफा,प्रधानमंत्री का ट्वीट और अगले ही दिन फिर से मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना क्या किसी फिल्मी ड्रामा से कम था । किसी फिल्म के बनने में वक्त तो लगता है । कितनी सारी यूनिटें मिल कर एक फिल्म को अंजाम तक पहुचाती है । नीतीश की बीते फरवरी में किसी कार्यक्रम में कमल के फूल पर रंग भरते हुए फोटो सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है । यह रंग उन्होने अब जीवन में भी उतार लिया है । और कमल के साथ हो चुके है। उसके समर्थन से ही फिर से मुख्यमंत्री की शपथ ले चुके है।
एक और वाकये को थोड़ा याद करें तो समझ पाएंगे कि राजनीति में दोगलापन कोई नया नहीं है। दिल्ली में केजरीवाल ने बहुमत न होने के कारण पहली बार इस्तीफा दिया तो यही भाजपा केजरीवाल पर जनता के जनाधार का सम्मान न करने कि दलील पेश कर रही थी। लेकिन बिहार की जनता ने भाजपा के विरोध में दोनों राजद और जनता दल यूनाइटेड को जिता दिया उसके बाद नीतीश के इस्तीफे को जनता के जनाधार के सम्मान न करने की बात से पीछे होते दिख रही है। बल्कि उसे नए नाम से जोड़ कर भी प्रधानमंत्री ट्वीट करते है। ‘भ्रस्ताचार के खिलाफ लड़ाई में नीतीश ने साथ दिया’ ।
सत्ता की गोद में बैठ कर खबरे परोसने वाली मीडिया 4 दिन पहले तह बिहार में जंगल राज होने की बात करती दिख रही थी। बीजेपी के साथ आते ही बिहार राम राज्य में तब्दील हो गया । कोई भी अशुभ घटना बिहार से नहीं आ रही है। आप एक बार सोच कर देखिये कि अगर पूरे देश में भाजपा सरकार आ जाएँ तो इस गोदी मीडिया के लिए कोई चटकारी खबर ही नहीं मिल पाएगी। क्योकि हर तरफ रामराज्य होगा। नीतीश कुमार का भाजपा से मिलना उनके हिसाब से राजनीतिक लाभ प्राप्त होने जैसा भले ही हो । लेकिन नदिया जब समंदर से मिलती है तो अपना अस्तित्व खो देती है। जदयु के साथ भी कुछ ऐसा ही भविष्य में हो सकता है। वहीं लालू और उनके परिवार के लिए भी एक मौका है कि वो फिर से जनता से जुड़ पाएंगे । क्योकि उन दोनों का सामाजिक योगदान अभी शून्य है। उनके बिहार की जनता के लिए विपक्ष में रहकर कुछ करना होगा। उनके लिए लड़ना होगा। इतिहास में जाएँ तो भाजपा ने विपक्ष में रहते हुए वो वो काम किए है जो सरकार में रहते हुए शायद ही कर पाएँ। मंहगाई के खिलाफ स्मृति ईरानी और हेमा मालिनी का सब्जियों कि माला पहन कर विरोध करते हुए तस्वीर तो हम सभी ने देखी होगी। यह उसी का उदाहरण है।
नितीश और लालू की इस स्क्रिपटेड स्टोरी की वजह सीधे तौर भाजपा न हो लेकिन इसके तार कही न कहीं भाजपा से जुड़े हुए मालूम देते है। हालांकि नितीश और लालू के बीच मनमुटाव पहली बार नहीं है । 1994 में कथित तौर पर नौकरियों में एक जाति को प्राथमिकता देने और ट्रांसफर-पोस्टिंग में भ्रष्टाचार की वजह से नितीश ने लालू से पल्ला झाड लिया । 2003 में एक बार फिर नितीश बीजेपी से हाथ 2005 के विधानसभा चुनाव लालू से सत्ता छीनी थी। प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी नरेन्द्रमोदी को मिलने के बाद एक बार फिर नितीश बीजेपी से बाहर आकर लालू के साथ मिल गए । लेकिन कुछ ही समय के बाद से फिर से उनका बीजेपी प्रेम वापस लौट आया । जिसका नतीजा हम सभी के सामने है।
नितीश कितने दिन भाजपा में रहेंगे यह कहना तो मुश्किल है लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि नितीश के पास दलबदल का लंबा अनुभव है ।