मैं अपने इस लेख के माध्यम से यह बताने की कोशिश करूँगा कि संविधान में परिभाषित समान न्याय और निशुल्क क़ानूनी सहायता कैसे अपने उदेश्यों को पूरा नहीं कर पा रहा है| ऐसे वो क्या तत्व हैं जो इस प्रक्रिया में बाधक साबित हो रहे हैं तथा सबके लिए न्याय की अवधारणा को सिर्फ एक सपना बना कर रखा गया है|
मैं चर्चा करने से पहले यह बताना चाहता हूँ कि तत्कलीन समय में विचाराधीन बंदियों ( जिन्हें अभी तक सजा नहीं मिली, पर फिर भी वो जेल में हैं ) के साथ उनके सामाजिक विधिक सहायता एवं उनका समाज में पुनः एकीकरण के ऊपर कार्य कर रहा हूँ| यह सब कार्यो को मैं जिला विधिक सेवा प्राधिकार पटना और सामाजिक संगठन के समन्वय के माध्यम से कर रहा हूँ और अपने इस कार्य अनुभवों के आधार पर बता रहा हूँ|
अभी के सामाजिक व्यवस्था को देखें तो पाएंगे कि हम सभी लोग कानून से घिरे हुए हैं, और हमारे समाज को नियंत्रित करने के लिए औपचारिक रूप से कानून और संस्थाए बहुत सारे हैं| जिसके माध्यम से उन तमाम सामाजिक विचलनकारी व्यवहारों के ऊपर नियंत्रित रखा जाता है| अभी के परिपेक्ष्य में बात की जाये तो पाएंगे की तमाम कानून और संस्थाए सिर्फ व्यवहारों को नियंत्रित करने का काम कर रहे हैं. उन व्यवहारों में कैसे सुधारात्मक परिवर्तन लाया जाये, यह अभी भी हजारों प्रकाशवर्ष की दूरी की तरह दिखाई पड़ता है|
समान न्याय और निशुल्क क़ानूनी सहायत: भारत के प्रत्येक नागरिक को यह संविधानिक अधिकार है जो अनुच्छेद 39(अ) में वर्णित हैं| तत्कलीन समय में इन कार्यो को सिर्फ कागजी करवाई और लीपापोती तक ही सिमित रखा गया हैं | बहुत से राज्य अभी भी इस उदेश्यों को पूरा करने के लिए जैसे तैसे प्रयासरत हैं परन्तु कुछ राज्यों ने इस क्षेत्र में प्रासंगिक कार्य कर रहे हैं| राज्यों को यह देखना चाहिए की सिर्फ समान न्याय और निशुल्क क़ानूनी सहायत प्रदान करना ही राज्य का मुख्य कार्य नहीं हैं बल्कि न्याय को कैसे गरीबॉन के दरवाजे तक पहुँचाया जाये और न्याय सबके के लिए हो, यह भी देखना चाहिए|
इन सभी उदेश्यों को पूर्ति करने के लिए एक संरचनात्मक प्रणाली हैं जैसे राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकार (राष्ट्रीय स्तर पर), राज्य विधिक सेवा प्राधिकार (राज्य स्तर पर), जिला विधिक सेवा प्राधिकार (जिला स्तर पर) और अनुमंडल स्तर पर तालुका विधिक सेवा कमिटी का गठन किया गया हैं, जिसके माध्यम से कोई भी नागरिक निशुल्क क़ानूनी सहायता प्राप्त कर सकता हैं|
कोई भी व्यक्ति जिला विधिक सेवा प्राधिकार के ऑफिस में जा कर सिर्फ एक आवेदन के माध्यम से निशुल्क क़ानूनी सहायता प्राप्त कर सकते हैं इसके लिए कुछ योग्यता निर्धारण किया गया हैं:
(क) व्यक्ति अनुसूचित जाती और जनजति से सम्बंधित
(ख) एक महिला या एक बच्चा
(ग) मानव तस्करी का शिकार या सविधान के अनुच्छेद 23 में वर्णित भिछुक
(घ) अपंग व्यक्ति या ऐसा विपति ग्रस्त व्यक्ति जो जन आपदा, नृजातीय, हिंसा, जाति हिंसा, बाढ़, सूखाग्रस्त आदि से सम्बंधित या जिनका वार्षिक आय एक लाख से कम हो|
जेल एक डार्क रूम
भारत में लगभग 68 प्रतिशत जनसंख्या जेलों में विचाराधीन बंदियों का हैं| जेल में ऐसे कई सारे बंदी हैं जो छोटे मोटे अपराध में भी दो और तीन सालो से बंद हैं. उनके पास अधिवक्ता नहीं हैं कि कोर्ट में उनका जमानत याचिका दाखिल कर सके|
ऐसे ही जब मैं एक दिन बेउर कारागृह में गया तो एक बालक से मिला उसका उम्र केवल चौदह वर्ष और वह कक्षा आठ का विधार्थी था| पटना के समीप ही गाँव में उसका घर था, उसको कई बहुत ही गंभीर मामलो में फसाया गया था|
इस बालक को मैंने बेउर जेल में सरकारी स्कूल ड्रेस में देखा तो मुझे लगा की ये बालक अठारह वर्ष से कम है तथा इसको पर्यवेक्षण गृह (जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड) में होना चाहिए| मैं उसके पास गया तो पूछा कि तुम्हरा उम्र कितना है और तुम किस क्लास में पढ़ते हो और तुम्हे क्यों यहाँ लाया गया है?
तो उसने कहा कि मेरा नाम पुलिस वालो ने FIR में जोड़ दिया है. फिर मैं उसके घर का पत्ता लिया और उसके घर गया| वह बालक बहुत ही गरीब और दलित परिवार से सम्बन्ध रखता था. उसके घर में कुल आठ सदस्य और केवल यही एक लड़का था, जो पढ़ रहा था| उसके माँ पिता जी स्टेशन के बाहर फूटपाथ पर सब्जी बेचा करते थे तथा उनके पास केवल दो रूम का एक मकान जो मिट्टी का बना था| उनके घर में बिजली तो था परन्तु शौचालय नहीं था|
परिवार से यह जानकरी मिला की इंद्रा आवास में नाम आया हुआ था परन्तु बड़ा बाबू को दस हज़ार नहीं देने के कारण अभी तक आवास पास नहीं हुआ| उसके माता पिता से यह जानकारी मिला की वह बेउर कारागृह में पिछले पांच महीनो से बंद हैं| इनके पास इतना पैसा नहीं था की एक वकील को रख सके या इनके पास निशुल्क क़ानूनी सहायता के बारे में कोई जानकारी नहीं था | वे इस बात से भी अनभिग्य थे की उनके बेटे के ऊपर क्या मुकदमा दर्ज किया गया हैं | पुलिस स्टेशन से उनको कोई कागज या FIR का कॉपी भी नहीं दिया गया था|
फिर मैं उस बालक के स्कूल में गया और वहां से स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट लिया जिसमें उसका उम्र मात्र चौदह वर्ष था| स्कूल लिविंग सर्टिफिकेट के आधार पर उस बालक को बेउर कारागृह से पर्यवेक्षण गृह लाया गया |अन्तः उसको जमानत पर रिहा कर दिया गया और इस मामला में निशुल्क क़ानूनी सहायता, अधिवक्ता के. डी. मिश्रा ने दिया था| फिर मैंने उस बालक का स्कूल में एडमिशन करवा दिया ताकि वह अपने आगे की पढाई अच्छे से कर सके| इस मामला में देखा जा सकता है कि हमारी जो न्याय व्यवस्था हैं वो बिलकुल माउंट एवेरेस्ट की चोटी की तरह है जहाँ पर हर कोई नहीं पहुँच सकता है|
ऐसे ही एक और व्यक्ति से बेउर कारागृह में मिला जो सिर्फ एक छोटे से लोहे के चोरी में जिसकी कीमत मात्र तीस से चालीस रूपया होगा| ढाई सालों से कारागृह में बंद था| वह जिस अपराध के लिए बंद था उसका अधिकतम दंड तीन साल का था| वह बिलकुल अनाथ और उसके माता पिता जीवित नहीं थे| वह एक भूमिहीन, अशिक्षित और पिछड़ी जाति से सम्बन्ध रखता था|
जब मैं उस व्यक्ति से मिला तो उसने मुझे बताया की मेरा कारागृह से बाहर कोई नहीं हैं और मैं उम्मीद ही छोड़ दिया था कि मेरा भी कोई अनजान व्यक्ति जमानत करवाएगा| इसके बाद वह बहुत ही रोने लग गया| फिर मैं कोर्ट जाकर केस की जानकारी लिया तो पता चला कि उसमें जिला विधिक सेवा प्राधिकार के द्वारा एक पैनल अधिवक्ता दिया गया था जो कभी भी ढाई सालो में एक बार भी कोर्ट तारीख पर नहीं गए| जब मैं उस पैनल अधिवक्ता से मिला तो उन्होंने बताया की मुझे सरकार सिर्फ एक केस के समाप्ति पर केवल 500 रूपये देती हैं, फिर मैं अपना कीमती समय ये सब फालतू मामलों में क्यों ख़राब करूं|
यह सब सुनने के बाद मेरे पास कुछ जवाब नहीं था अपितु मैंने उसका जमानत भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता के धरा 436 (अ) के तहत दिलाया और वह मात्र पांच दिनों में जेल से बाहर आ गया| अभी तत्कलीन समय में वह अपने गाँव में खेतिहर मजदूरी का काम कर रहा हैं| इस प्रकार के बंदियों में सबसे ज्यादा वो लोग हैं जो सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े हुए हैं| कुछ बंदी इतने गरीब तबके से आते हैं की जिनके घर से कोई मिलने के लिए साल में एक दिन भी नहीं आता हैं क्यूंकि उनके घर से जेल जाने तक का पैसा नहीं होता है|
इसी से हम अनुमान लगा सकते हैं कि वो अपने केस में एक अधिवक्ता रखने के लिए कितना समर्थ होंगे| अगर जिन बंदियों को निशुल्क क़ानूनी सहायता मिलता हैं तो हमेशा शिकायत यह होती हैं की उनका वकील कोर्ट तारीख पर नहीं जा रहा हैं यहाँ तक कि वकील अपने क्लाइंट को भी नहीं पहचानता हैं| आखिर यहाँ पर सवाल यही हैं कि निशुल्क क़ानूनी सहायता पाने वाला लाभार्थी कौन से लोग हैं? ये वो लोग हैं जिनका आर्थिक हालत बिलकुल ख़राब हैं, जो समाज के हाशिये पर हैं | लोग कम पढ़े लिखे होते हैं उन्हें बोलने नहीं आता है कि वो सही से वकील से बात कर पाए, कुछ मामलो में तो वकील के जगह उसका मुंशी उन लोगों से बात करता हैं और गलत जानकारी देता हैं| इस प्रकार के निशुल्क क़ानूनी सहायता का कुछ भी प्रासंगिकता नहीं रह जाता है| यह केवल कागजी लीपापोती केआलावा कुछ नहीं है|
कुछ ऐसे भी बेघर लोग जेल में हैं जिनके पास कोई क़ानूनी पैरबिकार नहीं होता है| अगर कोर्ट उनको जैसे तैसे जमानत भी दे देता है तो उनके पास कोई प्रतिभूति नहीं होता है| जिसके चलते उनको जमानत भी कैद की तरह होता है| कभी कभी तो जमानत रकम इतना ज्यादा होता है कि लोग उस राशी को नहीं भर पाते हैं जैसे दस हज़ार के दो प्रतिभूति, जमीन के कागज आदि| यह कहीं न कहीं उन लोगों को जो आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं, उनको उनका क़ानूनी अधिकार से ही केवल वंचित नहीं रखा जा रहा है किन्तु वो वैसे बने रहें, असमानता की यथा स्थिति बरक़रार रहे ये सुनिश्चित कर रही है हमारी न्याय वयवस्था|
कुछ लोग ऐसे भी हैं जिनको जेल से बाहर आने के बाद समाज उनको स्वीकार नहीं करता हैं और इस पंक्ति में वही लोग खड़े हैं जिनके पास जमीन नहीं हैं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से सक्षम नहीं हैं की अपना पूनर्वास फिर से स्थापित कर सके| कारागृह से बाहर आने के बाद जब अपने गाँव जाते हैं तो उनको कोई रोजगार नहीं देता हैं यहाँ तक की खेती में मजदूरी का काम भी नहीं मिल पता हैं| सरकार को चाहिए की ऐसे लोगो के पूनर्वास और सामाजिक एकीकरण के लिए योजना बनाये ताकि उनलोगों को फिर से अपराध में जाने से रोका जा सके| बंदियों को पूनर्वास और सामाजिक एकीकरण के प्रति जो नजरिया हैं समाज में अभी भी वह बहुत ही उदासीन हैं|
अन्तः मैं यही कहना चाहता हूँ की हमारे पास बहुत अधिक कानून हैं परन्तु बहुत कम न्याय हैं, अगर किसी व्यक्ति को साधारण से मामलो में न्याय मिल भी जाता हैं तो वह बहुत कुछ खो देता हैं और वह कर्जदार बन जाता हैं, वह व्यक्ति उस न्याय को महसूस नहीं कर पाता हैं| न्याय प्रक्रिया बहुत ही सरल और त्वरित होना चाहिए जिसको देखा और महसूस किया जा सके|
( प्रवीन कुमार टाटा सामाजिक विज्ञानं संस्थान, मुंबई में क्रिमिनोलॉजी और जस्टिस सेंटर में एक फेलो हैं जो कि विचाराधीन बंदियों के साथ बिहार में काम कर रहे हैं. )
सम्पादकीय नोट:
जो सरकार अपने वकील को केस लड़ने के लिए कम से कम एक तारीख पर ४०-५० हज़ार देती है, जो कि हवाई जहाज से उड़के कहीं भी चला जाता है, वही सरकार लीगल ऐड यानी समान न्याय और निशुल्क क़ानूनी सहायता के लिए ५०० रुपए एक केस के लिए देती है, जो कितने साल भी चल सकता है, चाहेे वकील और विचारबंदी न मिल पायें हों।
हमारे पुराने चीफ जस्टिस सब के सामने रोना रोते थे कि हमें फण्ड दो, न्याय वयवस्था चरमरा गयी है. पर कम से कम कानून में वयवस्था लाने के लिए नियत तो चाहिए. क्या सब के लिए जमानत की रकम देना या गारेंटर लाना संभव है ? यहाँ जान पहचान वाले हस्ताक्षर नहीं करते, फिर दूसरा कैसे करे ? कम से कम एक समुदाय या उस एरिया के ‘इज्जतदार’, ‘नामी’, ‘प्रभावी’ या ‘सरकारी’ व्यक्ति को गारेंटर मान लें. और इन शब्दों की परिभाषा तय करने वाले समुदाय ही निहायती जज हैं. वयवस्था है, पर इन्हीं गरीबों को दौड़ने के लिए और संजय दत्त जैसे अभिनेता को पैरोल पे घुमाने के लिए.
खामियां कहाँ कहाँ हैं ? किसका बेटा वकील बनता है, किसकी बेटी वकील ? और बनता है भी तो क्या करने के लिए? हमारे राष्ट्रीय लॉ यूनिवर्सिटी जो कि काफी अच्छे ‘संस्कारी’ हैं, वहां से पढने वाले छात्र कहाँ वकालत कर रहे हैं ? जरा पता करके बताएं हमें. क्या १० लाख लोन लेकर पढने वाला विध्यार्थी लीगल ऐड वकील बनेगा ?