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पानी और बागी: मानखुर्द, चम्बल मोइरंग

लोकतक लैरेम्बी, मणिपुर, चम्बल, मानखुर्द

लोकतक लारेम्बी मणिपुरी मूवी में होबोम पवन कुमार ने लोकतक झील पर जो इम्फाल के दक्षिण में मोइरंग में है, वहां के मछवारों की जिंदगी पर बनाया है. वो दिखाते हैं कि कैसे सरकार की मणिपुर लोकतक संरक्षण योजना २००६ के कारण वहां के समुदाय को नुक्सान पहुच रहा है. और मूवी के हीरो को बार बार एक झील की देवी नजर आती है जिन्हें लोकतक लारेम्बी के रूप में जाना जाता है, वहां के मेतेई समुदाय की कहानियों में. इस मूवी में हीरो को एक रिवाल्वर भी मिलता है, जिसका वो उपयोग सरकार के खिलाफ करना चाहता है और अपनी सुरक्षा के लिए. एक मछवारे का घर जो की सरकार जला देती है, वो डरा हुआ सहमा हुआ दिखाया जाता है. जो चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा, अपने परिवार को अपने घर को बचाने के लिए.
ये वही जगह है जहाँ इंडियन नेशनल आर्मी ने अपना कैंप डाला था और ब्रिटिश के खिलाफ जीत हासिल की थी. और ये वही जगह है जहाँ मणिपुर के बहुत सारे बागी छुपते थे. बागी चम्बल से अलग थे, उनका भूगोल और राजनीती अलग था लेकिन मूल बात वही थी कि वो शासन और सरकार के नीति के खिलाफ थे और अपनी बात मनवाने के लिए उन्होंने हथियार उठाया था.

ब्रिटिश ने २७ जून १८५७ में १६७ नाविक क्रांतिकारियों को लोचन निषाद और समाधान निषाद सहित कानपूर में बरगद के पेड़ पर फांसी दी थी, क्यूंकि इन्होने कई ब्रिटिश को नावों से डुबो कर मार दिया था. इसके बाद इन्हें क्रिमिनल एक्ट के तहत पूरी मल्लाह जाति को गुनेह्गर घोषित कर दिया गया था. चम्बल और लोकतक झील में बागी इसलिए भी छुपते थे कि ये जगह बहुत घनी और मुख्य धारा वाली सडकों से अलग थी, वहां जाना और सफ़र करना मुश्किल होता था. लोकतक एक तैरता हुआ झील है, जहाँ पर मछवारे बांस की झोपडी बनाकर, रहते हैं, इसी प्रकार जैसे मुंबई के मानखुर्द इलाके में कई श्रमिको ने मिट्टी मलबा डालकर धीरे धीरे रहने लायक बनाया है.

६० के दशक में चम्बल और लोकतक दोनों जगह विद्रोह हो रहा था. जब जब सरकारी विकास कानून के रूप में इन्हें जकड रहा था तब तब ये किसी न किसी तरीके से बह रहे थे. १९५२ में क्रिमिनल ट्राइब एक्ट हटा तो जरूर लेकिन पुलिस और सरकार से इनका रिश्ता बना रहा वैसे का वैसा.

१९५२ में बाबा साहब अम्बेडकर ने दलितों को शहर आने के लिए जब कहा, तो बहुत सारे लोग पूर्वी महाराष्ट्र से मुंबई पहुच गए थे, और फिर बाद में १९७२ में महाराष्ट्र में भीषण सूखा आने पर कई मातंग समाज के लोग, भी मुंबई पहुचे. वहां मुंबई के किनारे, वाशी गाँव था, जहाँ घातला गाँव, गोवंडी है, और अब मानखुर्द बगल में हैं. यहाँ समुन्द्र किनारे कोली समाज के मछवारे रहते थे. वो वहीँ खेती भी करते थे, जहाँ जो खेती होती वो नाम पड़ जाता था. जैसे की बैंगन वाड़ी, नारियल वाड़ी. यहाँ पर मातंग समाज के लोग आकर बसे. ये वैसा ही दुर्गम इलाका था जैसा कि चम्बल और लोकतक लेक. और वही दिल के बड़े मछवारे, जो हर किसी की नय्या पार लगाते थे. यहाँ पर देश भर के गरीब धीरे धीरे बसने लगे जिसमें मुस्लिम और दलित समुदाय के ज्यादा थे. यहाँ पर अलग तरह के बागी होते थे, भाई लोग, जो हफ्ता लेते थे, और बिना सरकारी ताम झाम के जो मांडवाली करते थे. यह समुदाय सरकार से पहले ही पीड़ित था, जो बुनियाद बना वहां पर लोगों का खुद का एक अलग कानून और लेन देन का. जो वहां पर लोकल नजरिये में तो भारी था, पर आख़िरकार उसके तार राजनेताओं और सरकारी तंत्र से जुडे रहते थे. जब जब ये बागी सरकार के हाथ से निकलते, इनका एनकाउंटर या देश के नाम ऑपरेशन कर मार दिया जाता था. बिना कोई तहकीकात और मुलाकात के.
जब जब सरकार ने कानून लाया जैसे १९५६ में फारेस्ट का राष्ट्रीयकरण, १९७९ में लोकतक झील के पास इथाई barrage, या चम्बल के ऊपर डैम का निर्माण, फिर मुंबई शहर में स्लम रिहैबिलिटेशन, तब तब इनकी हालात और ख़राब हुई. लोकतक झील के मछवारों की, चम्बल में रहने वाले मल्लाहों की और मुंबई के मानखुर्द में रहने वाली कोली समाज की आज जो हालत है, ये सरकार, पानी और बागियों के मझधार में डोल रही है. किस तरह बागी यहाँ रहे, और इनकी हालत कैसे बदली इस पर अगले अंक पर बात करेंगे. मानखुर्द के भाई लोग से, चम्बल के बागी तक, और लोकतक झील के इलाके का हाल जानेंगे.

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