“कौन कमबख्त जानकारी देने के लिए छापता है ? हम तो छापते हैं कि विज्ञापन होने पाए, आवाज़ पैसे की आप तक, और गैर जरूरी साजो सामान की चाह जुबान पर पानी से भी पहले आवे..
जब सोच भी देखने, सुनने से विकसित होती है, तो हम सुनायेंगे और हम ही दिखायेंगे,
न पानी रहेगा न कीचड़, बस रहेगा कमल, कमल और कमल!”
लोक सभा चुनाव से अब तक हिसाब लगाना बहुत ही मुश्किल है कि बाजपा ने चुनाव में इतनी पैसे कहाँ से लाये, और कहाँ से लाये जा रही है. हर तरह कि मीडिया गली नुक्कड़ के बोर्ड से गूगल के विज्ञापन तक, अपनी जगह इन्हें बेच रही है.
हर चुनाव के दौरान कुछ नए अखबार और पत्रिकाएँ पनपने लगते हैं, जो कि उनके विज्ञापन का पैसा लेकर हर जगह पंहुचा देते हैं.
अगर कभी समय मिले तो आप भी कभी कोई विज्ञापन देने जाना, जो प्रशासन चाय वालों की स्टोव भी उठा ले जाती है, उनके सामने अपना पोस्टर लगा के देखना. क्यूंकि परमिशन तो आपको लेना पड़ेगा हर विज्ञापन को सार्वजिनिक जगह में लगाने का.
अगर आपके पास पैसे नहीं हैं, आप विज्ञापन तो कर नहीं सकते, और न ही चुपचाप मेहनत से अपने छोटा मोटा धंधा रिश्वत बिना दिए चला सकते. न आप सुना सकते न आप धंधा कर सकते. हाँ, लेकिन आपको कोई सुना सकता है, दिखा सकता है, सोच में इतना कचड़ा भर सकता है, कि सोच ही न पाओ.
आजकल तो अखबार का पहला पन्ना भी बिक गया है. समाचार तक पहुँचने के लिए कम से कम तीन चार बार विज्ञापन देखना ही पड़ता है. और ये उनके ही रईस विचार शब्दों और चित्रों में प्रदर्शित किये जाते हैं, जो नागरिकों की सोच संडास से सन्डे तक, वश में रखना चाहते हैं.
इस जानकारी देने वाले कागज़ के टुकड़े में क्या विज्ञापन की सीमा तय की जा सकती है ?
लगता तो ऐसा हे कि जो जितना ज्यादा पैसा फेकेगा उसके हिसाब से ही स्याही अपना रंग बदलेगी, फिर चाहे चूना लगाने की बारी आये या चुनाव की.