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गरीबों के त्यौहार और नया साल

By द सभा Jan11,2016
नव-वर्ष के दिन फुटपाथ पर गुब्बारा बेंचते बच्चे|
मुंबई : नव-वर्ष के दिन फुटपाथ पर गुब्बारा बेंचते बच्चे|

पूजा नागर

त्यौहार , बड़ा ही जोशीला और उमंग भरा है ये शब्द । कहते और लिखते ही मन में खुशियों के भाव आने लगते है । पर किसके आपके या मेरे ? सबके तो मत ही कहना चूंकि सबके मन में क्या आता है उसका तो हम निश्चित तौर पर ही कुछ कह नही सकते। लेकिन हाँ, ज़्यादा से ज़्यादा को जानने की कोशिश तो करते ही रहनी चाहिए ।

मुंबई जैसे महानगर में त्यौहार सबके लिए अलग अलग रूपों में आता है और इसके मायने  भी सबके लिए अलग ही रहते हैं। हाशिये पर जीने वाली एक बड़ी तादाद के लिए त्यौहार महज एक ऐसा अवसर है जब वो अपने लिए दो जून की रोटी और चैन की नींद को सुनिश्चित कर पाने में सफल रहते हैं। भले ही फिर वो कोई भी त्यौहार हो या कोई और मौका । दिवाली, होली, ईद ,क्रिसमस, राखी या कोई और सब एक ही है।

जिन लोगो की बात मैं कर रही हूँ उन्हे आप मुंबई के चौक चौराहे पर, ट्रेफिक लाइट पर, मॉल, पब, रेस्तरा और पार्क आदि के बाहर बड़ी आसानी से देख सकते हैं। और महसूस करने की कवायद करेंगे तो उनकी ज़िंदगी के कुछ दर्दों को महसूस भी कर पायेंगे । और शायद ही आपका उनसे कभी सामना न हुआ हो फिर भले ही आप मुंबई के किसी भी पॉश से पॉश इलाके में बसे हो या घूमने निकले हो। हाल ही में क्रिसमस और न्यू इयर की धूम हर तरफ बिखरी हुई थी और हम सब उसमे सराबोर थे। इन्हे मनाने में किसी तरह की कसर नही छोडने में मशगूल थे। पर इनका क्या ये तो ….

छबीली के अल्फ़ाज़ों में “ हमे बहुत इंतज़ार रहता है लाल बाबा के जन्मदिन का… ई दिन पर हमारी बहुत सी टोपियाँ बिकत हैं” । छबीली कहती है कि इन् दिनों हम बड़े बड़े चोराहे पर गाड़ियों के आने और रेड लाइट के आने का इंतज़ार करते हैं। और ये कहते कहते वो एक गाड़ी के पीछे भाग गयी अपनी टोपियों को खरीदने की गुहार लगाते हुए। तो आप ही मुझे बताइए इनके क्रिसमस त्यौहार के मायने। जब ये चंद चिल्लर के लिए अपनी जान जोखिम में डाले रहते है चूंकि उनके लिए वे चंद चिल्लर भी उनके जीवन का बहुत कुछ तय करती है । हाशिये पर जी रहे इन लोगो का न कोई घर है न कोई त्यौहार, है तो बस एक ये आशा कि त्यौहारों पर ये शायद कुछ अपने मन का खा लेते हो उसका भी कोई तय नही है वैसे।

राधा अपने बच्चे को पीछे गोद में लटकाए एक पार्क के पास इसलिए बैठी है की आज उसके सारे गुब्बारे बिक जाये तो वो अपने बच्चे को सर्दी से बचाने क लिए एक कंबल खरीद ले। आँखें खुली हो और मन साफ हो तो ये आपको तकरीबन हर त्यौहार पर कुछ न कुछ बेचते हुए दिख जाएँगे।

31 दिसम्बर की रात जब मुंबई के जुहू बीच पर एक जनसैलाब उम्ड़ा हुआ था और नये साल के स्वागत में पगलाया हुआ था तो मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा बनी हुई थी पर पता नही क्यूँ बार बार उस बालक पर नज़र जा रही थी जो समुंदर की ठंडी लहरों में खड़े होकर सबका ध्यान अपने जलते बुझते खिलौने की ओर दिला रहा था । और हवा में उड़ा कर फिर उसे लेने को भागता था। लगातार आवाज़े लगा रहा था “नया दिन नया खिलौना, नया दिन नया खिलौना”…

कहने को तो वहां मौजूद ज़्यादातर लोग पढे लिखे और सजग होने की श्रेणी में आते होंगे और पुलिस भी अपनी ड्यूटी निभा रही थी लेकिन सच मे तो सारे ही बंद ज़ुबान निष्क्रिय थे इस बालक के खोते हुए बचपन पर । वो बचपन जब किसी भी बालक को अपने जीवन को सजाने सवारने का हक़ होता है, अपने बचपन को जी भर जीने का हक़ होता है, उछलने कूदने, शरारत करने और हो हल्ला करते रहने का दावा ठोक मज़े करने की इच्छा होती है । और हो भी क्यों न भारतीय संविधान तक इस अधिकार की पैरवी करता है।

लेकिन आप इनकी समझ या सूझ पर सवाल न उठाए तो बेहतर ही होगा चूंकि ये भी अपने आर्थिक मामलो की समझ में उतने ही ज्ञानी है जितना की हम खुद को समझते है…

बबलू अपनी फिरकियों को बेचते हुए अपने दोस्त से कह रहा था कि “कोई नही अगर आज सारे न बिके तो 26 जनवरी भी आने वाली है उस दिन बिक ही जाएँगे” ।

मुंबई सपनों का शहर है और सबको अपने अपने सपने बुनने का अधिकार है तो बबलू भी तो हममे से ही एक है … तो अपने त्यौहारों  और उनकी खुशियों पर फिर से गौर फरमाए पर इस बार “गरीबो के त्यौहारों के संदर्भ में”।

(पूजा नागर एक स्वतंत्र पत्रकार हैं।भारतीय जनसंचार संस्थान से पत्रकारिता का अध्ययन कर रही हैं )

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