भारत भर के विभिन्न राज्यों के किसानों के विरोध प्रदर्शनों के बारे में तो आपने सुना ही होगा। लेकिन किसान विरोध क्यों कर रहे हैं?
वह कौन से अध्यादेश हैं जिन्होंने किसानों को इस महामारी के बीच सड़कों पर आने और विरोध करने के लिए मजबूर कर दिया है?
इन्हीं सवालों और कुछ अन्य विषय के बारे में हम इस निबंध में बात करेंगे जो आपको वर्तमान स्थिति के बारे में जानने की आवश्यकता है, तो चलिए शुरू करते हैं………
एपीएमसी (APMC) मंडीया क्या है और वह कैसे अस्तित्व में आईं?
एपीएमसी का इतिहास उस समय से पहले का है जब आजादी के कई सालों बाद भी किसानों का जमीदारों और साहूकारों द्वारा शोषण किया जाता था। सरकार ने 1965 में किसानों की सुरक्षा के लिए एक्शन एग्रीकल्चर प्रोड्यूस कमेटी एपीएमसी की स्थापना की। यह इस सिद्धांत पर नियंत्रण करते हैं कि पहले उपजे को बाजार क्षेत्र में लाया जाए और फिर नीलामी के जरिए बेचा जाए।
•इन बाजार क्षेत्रों में व्यापारियों के पास भी का लाइसेंस होना चाहिए जो सरकार को भ्रष्टाचार की जांच करने की अनुमति देता है।
•इन बाजारों में सब कुछ दर्ज किया जाता है।
•व्यापारियों द्वारा शोषण को रोकने के लिए आवश्यक फसलों के लिए एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) निर्धारित किया गया है।
•अगर व्यापारी फसलों की खरीद नहीं कर पाते हैं तू सरकार एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर किसानों की फसल ख़रीद ती है।
तीन कृषि अध्यादेश क्या है और इन्हें समय के साथ कैसे बदला गया है?
जून 2020 में सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 में संशोधन का प्रस्ताव दिया, यह कृषि सुधार अध्यादेश आत्मनिर्भर योजना के नीचे आते हैं जो कि कुछ इस तरह से हैं:
•आवश्यक वस्तु संशोधन अध्यादेश, 2020 (ECA)
•खेती उत्पादन व्यापार और वाणिज्य संवर्धन और सुविधा अध्यादेश, 2020
•मुल्ले आश्वासन और कृषि सेवा अध्यादेश, 2020
पहली संशोधन के अनुसार इसे अवश्य खाद्य वस्तुएं जैसे खाद्य तेल दालचीनी इत्यादि को निर्देश कर दिया जाएगा जिस का सरल अर्थ है कि सरकार अब किसानों की उपज को तब तक स्टॉक नहीं करेगी जब तक कि बाढ़ अकाल जैसी आपदाओं में अनिवार्य हो। इसके अलावा सरकार ने हाल ही में 5 जून 2020 के प्रस्ताव में कुछ बदलाव किए हैं इसके अनुसार व्यापार क्षेत्र वह स्थान या क्षेत्र है जहां उत्पादन को खरीदा या एकत्रित किया जा सकता हैं।
दूसरे संशोधन के अनुसार व्यापारियों को प्रोसेसर निर्यातक मिलर खुदरा विक्रेता थोक व्यापारी के रूप में परिभाषित किया गया है। यह परिभाषा कमिशन एजेंट्स यानी आढ़तियों को शामिल नहीं करती हैं। कोई भी व्यक्ति जिसके पास पैन कार्ड है बैटरी डेरिया में किसानों की उपज को खरीद सकता है। यह बिचौलियों को समाप्त करने का दावा करता है जिससे परिणाम स्वरूप मूल्य की पूर्ण वसूली होगी।
तीसरे संशोधन के अनुसार किसान अपनी उपज को ऑनलाइन या ऑफलाइन भेज सकते हैं और अगर उन्हें भुगतान नहीं किया जाता है तो व्यापारियों को भारी जुर्माना देना पड़ेगा। यह 8 पॉइंट 5% बाजार शुल्क को समाप्त करने का दावा करती है जिसमें से 3% राज्यों द्वारा राजस्व में के रूप में उपयोग किया जाता था 2 पॉइंट 5% कमिशन एजेंट्स द्वारा और शेष 3% ग्रामीण विकास के लिए किया जाता था। परंतु यह बाजार शुल्क समाप्त सिर्फ मंडियों के बाहर ही होगी।
आप सभी यह सोच रहे होंगे कि यह सब कुछ सही लग रहा है और अगर मौजूद संशोधन बाजार शुल्क में कटौती करने जा रहा है, बिचौलियों को बाहर करने का दावा करता है और किसान मंडियों की सीमा से बाहर भी जहां मर्जी चाहे वहां अपना उपज भेज सकते हैं तो फिर राज्य किसान और आढ़तिए विरोध क्यों कर रहे हैं?
विभिन्न संगठन राज्य और किसान इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि
•व्यापार क्षेत्र की परिभाषा में एपीएमसी मंडियों को शामिल नहीं किया गया है जिसका अर्थ है ना कोई नियंत्रण ना रजिस्ट्रेशन और ना ही न्यूनतम समर्थन मूल्य। मतलब कि कोई यह जांचने के लिए नहीं उपस्थित होगा कि किसानों का शोषण हुआ है या नहीं। नीलामी के बजाय किसान एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करेंगे और उन्हें उनके प्रदर्शन के अनुसार भुगतान किया जाएगा।
एक प्रणाली जहां किसानों को उनके प्रदर्शन के आधार पर एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जाता है उसे टूर्नामेंट प्रणाली के रूप में जाना जाता है। इस प्रणाली में, किसान के पास वह सब कुछ होता है जिसमें पैसा खर्च होता है, और कंपनियां हर उस चीज की मालिक होती हैं, जो पैसा कमाती है।
•यह नया अध्यादेश एम एस पी के बारे में बात नहीं करता है, जिसका अर्थ है कि यदि कोई किसान उपजे को बाजार क्षेत्र के बाहर बेचने जा रहा है, तो वह उस कीमत के बारे में निश्चित नहीं है, जो उसे मिलने वाली है। केवल 6% किसान ही सरकार द्वारा शॉप पर गए एमएसपी पर अपनी उपज बेचते हैं। भविष्य में उन्हें एमएससीपी के आसपास फसलों की कीमत का वादा नहीं किया गया है।
एनडीटीवी पर नगमा शहर द्वारा हा लिए इंटरव्यू में राकेश डकैत जो कि भारत किसान यूनियन के प्रतिनिधि हैं उन्होंने कहा कि उनकी सबसे बड़ी मांग न्यूनतम समर्थन मूल्य है।
•कमिशन एजेंट्स या आढ़तियों को एपीएमसी मंडियों के कामकाज के तहत सत्यापित किया जाता है क्योंकि उन्हें लाइसेंस की आवश्यकता होती है, लेकिन किसान नए कानून के तहत व्यापारियों पर भरोसा नहीं कर सकते हैं।
पंजाब में हॉस्टल 28000 कमिशन एजेंट्स और हरियाणा में 32000 कमिशन एजेंट्स सीधे प्रभावित होने वाले हैं। क्या महामारी अकेली लोगों को बेरोजगार करने में पर्याप्त नहीं?
•इन संशोधनों से जमाखोरी की समस्या भी बढ़ने वाली है। लाभ के लिए कंपनियां कीमतों में गिरावट आने पर फसलों की जमाखोरी कर सकती हैं।
•यदि बाजार चित्रों के बाहर कोई कार्य यानी टैक्स नहीं होगा तो करो से बचने के लिए कोई भी कंपनी बाजार मंडी में प्रवेश नहीं करेगी।
•इसमें कोई संदेह नहीं है कि व्यापारी शुरुआती दिनों में बेहतर प्रोत्साहन प्रदान करेंगे, और एक बार मंडी प्रणाली ध्वस्त हो जाने के बाद किसानों के पास और कोई अन्य विकल्प नहीं रहेगा, जो सिस्टम को एकाधिकार करता है।
बिहार जैसे राज्यों की विफलता से बेचैनी बढ़ती है जिसने 2006 में कृषि उपज मंडी को समाप्त कर दिया था।
किसानों की मांगें क्या है?
•अध्यादेशो के रोल बैक
•मंडी बाजार की रक्षा
•सब उधार खत्म की जाए
•एमएसपी के नियमन के लिए राष्ट्रीय कानून
राज्य किसानों और कमिशन एजेंट्स के विरोध के बावजूद लोकसभा और राज्यसभा ने यह बिल पास कर दिए हैं। एक सवाल जो मेरे दिमाग में अटका हुआ है कि महामारी के समय सरकार द्वारा यह निर्णय जल्दबाजी मैं क्यों लिए गए हैं ? एक अध्यादेश एक आपातकालीन स्थिति कदम है और यह उचित चर्चा और बहस के बाद ही लिया जाना चाहिए। भारतीय किसान संघ हरियाणा पंजाब विधानसभा से अनाज मंडी संघ और हैदराबाद से अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (AIKSCC) लड़ने के लिए आगे आए हैं लेकिन हमारी सरकार अपने फैसले पर से टस से मस नहीं हो रही है।
अन्य देशों में इसी तरह के मॉडल्स का क्या परिणाम रहा है?
अमेरिका वर्षों से कॉर्पोरेट खेती का अभ्यास करता आ रहा है। स्नेह ने केवल कुछ निगमोंको बाजार पर नियंत्रण करने के लिए प्रेरित किया है, बल्कि किसानों की आत्महत्या दर में भी वृद्धि लाई है।
फार्म ऐट द्वारा “कृषि पर कॉर्पोरेट नियंत्रण” लेख के अनुसार कृषि बाजार का लगभग 40% कुछ कॉरपोरेट्स द्वारा नियंत्रित किया जाता है। यह न केवल स्थानीय समुदाय के लिए बल्कि प्रतिस्पर्धी बाजार के लिए भी हानिकारक है।
ग्रीन ज एक छोटा अंतरराष्ट्रीय संगठन है और छोटे किसानों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर समर्थन करता है। ग्रीन के सूत्रों द्वारा विश्व भर के बड़े व्यापारी भूख की समस्या को हल करने या कृषि क्षेत्र में किसी भी प्रकार की गरीबी को समाप्त करने के लिए अचानक से कृषि क्षेत्र में निवेश नहीं कर रहे हैं। वह विशुद्ध रूप से केवल लाभ चाहते हैं। वह विदेशी निवेश और खाद्य नियत पर नियंत्रण के लिए बाध्य भूमि कानूनों को तोड़ना चाहते हैं। उसी स्त्रोत में जब फिलिपिन के किसानों से पूछा गया कि क्या वह खेती में नई टेक्नोलॉजी का स्वागत करते हैं, तो उन्होंने जवाब दिया कि वह अपने स्वयं के ज्ञान और टिकाऊ प्रथाओं से संतुष्ट है।
अब सवाल यह उठता है कि यदि इन प्रथाओं ने फ्रांस, अमेरिका और यहां तक कि भारतीय राज्य बिहार में भी काम नहीं किया तो क्या उन्हें हमारे पूरे कृषि क्षेत्र में लागू करना महत्वपूर्ण है?
वह कृषि क्षेत्र जो अधिक संवेदनशील बनाने की नहीं बल्कि अधिक सुरक्षा की आवश्यकता है।
इस विषय में विरोध करने और समर्थन करने वाले राजनीतिक दलों की व्यापक भागीदारी है।
22 सितंबर 2020 को नरेंद्र मोदी के भाषण में उन्होंने किसानों को संबोधित करते हुए कहा कि वर्तमान अध्यादेश न्यूनतम समर्थन मूल्य को नहीं हटाता है। हो सकता है कि समस्या केवल यही है कि अध्यादेश एमएसपी और एपीएमसी जैसे महत्वपूर्ण शब्दों को शामिल नहीं करता है।
20 सितंबर 2020 को किसान अध्यादेश पारित करने के संबंध में एक बहस में राज्यसभा के 8 सदस्यों को निलंबित कर दिया गया।
निलंबित सदस्यों में रागेश (सीपीएम), सैयद नसीर हुसैन (कांग्रेस), राजीव सातव (कांग्रेस), रिपुन बोरेन (कांग्रेस), संजय सिंह (आप), डेरेक ओ ब्रायन (टीएमसी), डोला सेन (पीएमसी) और अलार्म करीम (सीपीएम) थे। 24 सितंबर को देशव्यापी विरोध प्रदर्शन किया गया। बिल को वापस लेने के लिए उन्होंने किसानों के कुल 20000000 हस्ताक्षर एकत्र करने और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के पास उन्हें जमा करने का फैसला किया गया था। लेकिन यह सब कोशिशें व्यर्थ निकली और प्रेसिडेंट राम नाथ कोविंद कृषि अध्यादेशों को पास कर चुके हैं।