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ओबीसी, आरक्षण और वर्तमान शैक्षणिक स्थिति

obc आरक्षण

 

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मनीष जैसल

हिन्दी  विश्वविद्यालय वर्धा  में  मीडिया / फिल्म  विषय पर  पी-एच.डी कर रहें हैं 

 अपनी बात शुरू करने से पहले गोरख  पांडे को उनकी इस कविता की पंक्तियों के साथ याद करना आवश्यक हो जाता  है जिनमे वो कहते  है कि…

वो डरते है

किस बात से डरते है वें

तमाम धन दौलत,गोला बारूद पुलिस फौज के बावजूद?

एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उनसे डरना बंद कर देंगे

गोरख पांडे का सत्ता पर निशाना बहुत ही सटीक था जो आज भी प्रासंगिक है।  वर्तमान में सड़कों पर हो रहे आंदोलनों में इन पंक्तियों का असर तेज होते देखा गया है।प्रसिद्ध समाजवादी नेता डॉ राम मनोहर लोहिया अक्सर कहाँ करते थे कि अगर सड़क खामोश हो जाएगी तो ये संसद आवारा हो जाएगी । लेकिन आज के समय में सड़कों से उठा जेलों में ठूस देने की  परंपरा भी साथ साथ विकसित होने लगी है ।

गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय  के एशोसिएट प्रोफेसर के निलंबन के बाद उनके समर्थकों सहित धरना देने  पर प्रोफेसर जय प्रकाश प्रधान को गुजरात पुलिस उठा ले गयी । यह पुलिसिया दमन नहीं है तो क्या है ? देश में कोई अपनी बात को रखने के लिए धरना भी नहीं दे सकता । दूसरी तरफ देश में इन दिनों ओबीसी आरक्षण को लेकर बहस फिर से टूल पकड़ती नज़र आई है। वहीं देश का एक तबका पूरे आरक्षण की समीक्षा करने का भी हिमायती बना भी फिरता है। यह वही वर्ग है जब मण्डल कमीशन की कुछ सिफारिशें मानी गयी तो लोगो ने आग लगाने से लेकर आत्महत्या तक करने की कोशिशें की थी। उन्हे लगता था आरक्षण से उनका वर्ग तबाह हो जाएगा (आज देश के लगभग सभी उच्च पदों पर ब्राह्मण का कब्जा फिर क्या दर्शाता है)। ऐसे में पहले उनसे आज सवाल यह भी पूछा जाना चाहिए कि क्या सामाजिक गैर बराबरी खत्म हो गयी है। एक ब्राह्मण कुल का पैदा होने वाला लड़का/लड़की जन्म से ब्राह्मण और समाज में उच्च स्थान क्यो रखता है।  इस ओर भी इन आरक्षण की समीक्षा के हिमायतियों से पूछा जाना चाहिए जो आर्थिक आधार को  वरीयता देने की बात करते है।

फिलहाल देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में एक भी असोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर नहीं हैं । देश के केंद्रीय विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का आंकड़ा उठा कर देखेंगे तो उनमे एक नाम अपवाद स्वरूप प्रो.  टी वी कट्टीमनी (अनुसूचित जनजाति)का आएगा जो इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय जनजातीय विश्वविद्यालय के कुलपति है। प्रमोशन में आरक्षण नहीं है तो इसका मतलब मेरिट ही सब कुछ निर्धारण करती है। यह विडम्बना ही कही जाएगी कि जिन जिन संस्थानों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, वहाँ उनका  (देश की 85 फीसदी आबादी) प्रतिनिधित्व है भी नहीं ? इस गैरबराबरी को कैसे समझा जाए यह सवाल आने वाले 50 सालों तक भी इसी तरह प्रासंगिक रहने का अनुमान है ।

इतिहास पर नज़र डालें तो पाते है कि 1928 में बोम्बे प्रान्त के गवर्नर ने ‘स्टार्ट’ नाम के एक अधिकारी की अध्यक्षता में पिछड़ी जातियों के लिए एक कमिटी नियुक्त की थी. इस कमिटी में डो. बाबा साहेब आम्बेडकर ने ही शुद्र वर्ण से जुडी जातियों के लिए ” OTHER BACKWARD CAST ” शब्द का उपयोग सब से प्रथम किया था, इसी शब्द का शोर्टफॉर्म ओबीसी है, स्टार्ट कमिटी के समक्ष अपनी बात रखते हुवे डो. बाबा साहेब आम्बेडकर ने देश की जनसंख्या को तीन भाग में बांटा था. जो अपर कास्ट,बैकवर्ड कास्ट और अदर बैकवर्ड कास्ट  हैं ।

संविधान की उद्देशिका, सभी नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक न्याय व स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की गारंटी देती है। अनुच्छेद 14 के अनुसार , ‘राज्य, भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा’ इसका अर्थ यह है कि जो ‘असमान’ हैं, उनके साथ सामान व्यवहार नहीं किया जा सकता। संविधान के अनुच्छेद 16(4) व 15(4), राज्य को सामाजिक व शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े समुदायों की बेहतरी के लिए नौकरियों व शिक्षण संस्थानों में आरक्षण जैसे विशेष प्रावधान करने का अधिकार देते हैं।

क्या जरूरी  था आरक्षण ?

आज़ादी के बाद के समय को समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि  ज्यादातर जायदाद जमींदारों के पास थी और ज्यादातर जमींदार उंची जाति से थे। जिसके पास धन होता है, वो आसानी से आगे बढ़ जाता है।दलित पिछड़ा समुदाय पिछड़ता ही जा रहता था । वही शिक्षा में एक ही खास वर्ग आगे बढ़ता दिख रहा था ।  ऐसे  में  भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 29 जनवरी, 1953 को ‘पिछड़ा वर्ग’ आयोग का गठन किया और इसके पहले अध्यक्ष काका कालेलकर को नियुक्त किया । 2 साल बाद इस आयोग ने 30 मार्च, 1955 को अपनी रिपोर्ट सौंपी ।  लेकिन इसका कोई सकारात्मक असर सामाजिक व्यवस्था पर नहीं पड़ा।

फिर कुछ सालों बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार ने 20 दिसंबर, 1978 को बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल की अगुवाई में एक नए आयोग की घोषणा की  । जो  आज मंडल आयोग के नाम से चर्चित है। मण्डल आयोग ने 12 दिसंबर,1980 को जब अपनी रिपोर्ट तैयार  की तब  मोरारजी देसाई की सरकार गिर चुकी थी। इंदिरा गांधी सत्ता सीन हो चुकी थी ।

7 अगस्त 1990 के दिन केन्द्र सरकार ने देश के 52 % ओबीसी समुदाय के लिए मंडल कमीशन की सिफ़ारीश अनुसार केन्द्रीय नौकरियों में 27 % ओबीसी आरक्षण लागु करने की घोषणा की, जिसके विरोध में ब्राह्मणों ने देशभर में मंडल विरोधी आंदोलन किया।  वहीं मंडल कमीशन की दूसरी सिफारिश शिक्षा मे 27 % आरक्षण 2006-7 मे लागू किया गया गया।  मंडल आयोग की सिफारिश को वी पी सिंह की सरकार ने मान लिया तो इसका देशव्यापी विरोध प्रदर्शन शुरू हुआ। सवर्ण  छात्र आत्हत्या करने लगे। सवर्ण छात्रों को लगने लगा कि उनका भविष्य अंधेरे में चला गया है । आंकड़ों और  खबरों के अनुसार 19 सितंबर 1990 को दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र एसएस चौहान ने आरक्षण के विरोध में आत्मदाह किया और एक अन्य छात्र राजीव गोस्वामी बुरी तरह झुलस गए।

मंडल आयोग ने  तमाम सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक कसौटियों पर तमाम जातियों को चिन्हित किया । आयोग की रिपोर्ट यह भी बताती है  कि  देश में कुल 3,743 पिछड़ी जातियां हैं।

मण्डल कमीशन की प्रमुख शर्तें

  1. जमींदारी प्रथा को खत्म करने के लिए भूमि सुधार कानून लागू किया जाये क्योंकि पिछड़े वर्गों का सबसे बड़ा दुश्मन जमींदारी प्रथा थी।
  2. सरकार द्वारा अनुबंधित जमीन को न केवल ST/ST को दिया जाये बल्कि OBC को भी इसमें शामिल किया जाये।
  3. केंद्र और राज्य सरकारों में OBC के हितों की सुरक्षा के लिए अलग मंत्रालय/विभाग बनाये जाये।
  4. केंद्र और राज्य सरकारों के अधीन चलने वाली वैज्ञानिक, तकनीकी तथा प्रोफेशनल शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए OBC वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए 27% आरक्षण लागू किया जाये।
  5. OBC की आबादी वाले क्षेत्रों में वयस्क शिक्षा केंद्र तथा पिछड़ें वर्गों के छात्र-छात्राओं के लिए आवासीय विद्यालय खोले जाए. OBC छात्रों को रोजगार परक शिक्षा  दी जाये।

हालांकि पंडित नेहरू ने भी  27 जून, 1961 को मुख्यमंत्रियों को लिखे एक पत्र में कहा था: कि हमें आरक्षण की पुरानी आदत और इस जाति या उस समूह को दी गई खास तरह की रियायतों से बाहर आने की आवश्यकता है। यह सच है कि अनुसूचित जाति-जनजाति को मदद करने के प्रसंग में हम कुछ नियम-कायदों और बाध्यताओं से बंधे हैं। वे मदद के पात्र हैं, लेकिन इसके बावजूद मैं किसी भी तरह के कोटे के खिलाफ हूं, खासकर सरकारी सेवाओं में ।

वही बाबा साहब डॉ अंबेडकर यह भी मानते थे कि अगर एक टोकरी में चने डालकर एक सशक्त और एक कमजोर घोड़े को खिलाया जाए तो सशक्त घोड़ा पूरा चना खा जाएगा और कमजोर घोड़े को कुछ नहीं मिलेगा। यही आज ओबीसी कोटा के मामले में हो रहा है।

आज देश के कई शैक्षणिक संस्थानों को नज़र डालें तो पाएंगे कि ओबीसी आरक्षण के साथ साथ दलित आदिवसी आरक्षण को सही रूप में क्रियान्वित नहीं किया जा सका है । कई ऐसे संस्थान है जहां इनके प्रतिनिधित्व कि संख्या ज़ीरो है। इसके इतर बनारस विश्वविद्यालय, सिद्धार्थ विश्वविद्यालय जैसे उच्च संस्थानों में ओबीसी कि संख्या उनके तय आरक्षण संख्या से काम होना किस ओर इशारा करता है यह शोध का विषय है ? जब सही स्तर पर आरक्षण का पालन पूरे देश में कहीं देखने (अपवाद को छोडकर)को नहीं मिल रहा तो ऐसे में आरक्षण की समीक्षा का प्रश्न अभी निरर्थक है । और आरक्षण की समीक्षा का सबसे बड़ा हितैषी वहीं वर्ग है जो मण्डल कमीशन का ही विरोध कर रहा था ऐसे में प्रश्न का खड़ा होना लाज़मी है ।

भारत में ही तमिलनाडू जैसे राज्य इसका दूसरा पहलू भी सामने लाने का प्रयास करते है। भारत मे सबसे अधिक आरक्षण तमिलनाडू में है। 69 प्रतिशत आरक्षण देने वाले इस राज्य में जयललिता (ब्राह्मण) जैसी मुख्यमंत्री ने भी कभी इसका विरोध नहीं किया और इसे भली भांति लागू करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । जातीय जनसंख्या आधारित इस आरक्षण के होने का मुख्य कारण पेरियार जैसे चिंतकों के आंदोलनों के कारण भी हैं। इसके अलावा भी अगर गौर फरमाए तो हिन्दी विवि वर्धा मे अध्यापक संदीप मधुकर सपकाले की बात से भी सहमत हुआ जा सकता है जिसमे वो कहते है कि ‘ब्राह्मणेतर आंदोलन का केंद्र होने के नाते तमिल मध्य जातियों को उनकी संख्या के अनुपात में आरक्षण दिया गया हैं । सेल्फ रिस्पेक्ट मूमेंट ने वहाँ की ब्राह्मणेतर राजनीति को सफल बनाया लेकिन वही सामाजिक सांस्कृतिक स्तर पर उसके विचार अल्प समय में विफल हो गए इसीलिए वहाँ दलितों पर किए जानेवाले अत्याचारों में ओबीसी जातियों का नाम प्रमुखता से आता हैं’ ।

सत्ता के बल पर ऐसा कर पाना मुश्किल काम नहीं है ।  दलितों की आवाज बनने वाली राजनेता पूर्व मुख्यमंत्री बहन मायावती हर बार आरक्षण के मुद्दे पर विरोधियों पर निशाना साधती है वहीं पिछड़ों के मसीहा बने फिरने वालें मुलायम सिंह से यह पूछा जाना चाहिए कि बहुमत में होते हुए भी त्रीस्तरीय आरक्षण व्यवस्था लागू न करने के पीछे इनकी क्या मंशा रही होगी । एक ओबीसी होते हुए भी आप ओबीसी आरक्षण की मांग को मुखर रूप दे पाने मे हर बार नाकामयाब रहे है । अंबेडकरवादी शिक्षक डॉ.  संदीप सपकाले का एक मत मुझे इस संदर्भ मे स्वीकार्य होता है जिसमे वो कहते है कि एलपीजी और मंडल कमीशन दोनों के आते ही इन दोनों का विरोध एक विशेष जाति वर्ग से उभर कर सामने आता हैं । ओबीसी समुदाय स्वयं अपने राजनीतिक सामाजिक अधिकारों को लेकर हमेशा ही भ्रमित  अवस्था में रहा हैं इसीलिए मंडल कमीशन के समर्थन और उसे पुरजोर लागू करने की लड़ाई आंबेडकरवादियों द्वारा लड़ी गयी जिसमें ओबीसी बनाम उच्च जातियों के संघर्ष के विपरीत दलित बनाम सभी सवर्ण जातियाँ हो गया । डॉ.सिंह ने जिस तरह आर्थिक विकास के लिए आवश्यक नई अर्थनीति को महत्वपूर्ण मानते हुए 90 में मुक्त अर्थव्यवस्था की नींव रखी थी उसी तरह प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने केंद्रीय विश्वविद्यालयों के अध्ययन अध्यापन में ओबीसी आरक्षण को लागू भी किया था ।

वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश जैसे बड़े सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक चेतना वाले राज्य में भी ओबीसी आरक्षण का सही मायने में क्रियान्वयन न होना बड़े सवाल खड़ा करता है। एक ओबीसी मुख्यमंत्री (अखिलेश यादव और पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिंह ) स्वयं ओबीसी आरक्षण के मुद्दे पर जब चुप्पी साधे हुए 5 साल सत्ता बिता देते है तो, ऐसे में ब्राह्मणवादी सरकारों से उम्मीद लगाना कितना सही हो सकता है ?

फॉरवर्ड प्रैस पत्रिका के जून 2016 मे छ्पे एक आंकड़े पर ध्यान दे तो  पाएंगे कि केद्रीय विश्वविद्यालयों में वर्ष 2011 में देश भर के अन्य पिछडा वर्ग से आने वाले केवल चार प्रोफेसर थे। उनमे अस्टिटेंट प्रोफेसर के कुल 7078 पदों में से ओबीसी के केवल 233 लोग थे ।

इसी पत्रिका मे दिये आंकड़े मे सवर्ण असिस्टेंट प्रोफेसर की संख्या देखे तो 2327 मौजूदा पदों में 1461 पद सवर्णों के नाम है । इस प्रकार देखा जाएँ अस्टिेंट प्रोफेसर के पद पर सवर्णों के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण हमें साफ साफ दिखता है तथा गत 3 जून, 2016 को विश्वविद्यालय  अनुदान आयोग ने देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों  भेजी गयी चिट्ठी जिसमें  केंद्रीय विश्वविद्यालयों को कहा है कि वे एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पदों पर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) को आरक्षण न दें। यूजीसी के इस पत्र के बाद एसोसिएट प्रोफेसर व प्रोफेसर के पद पर 50 फीसदी सवर्ण और 27 फीसदी ओबीसी के आरक्षण को मिलाकर  देखा जाए तो कुल 77 फीसदी पद सवर्ण समुदाय के लिए हो जाएगा ।

हम एक ऐसे गैर बराबर समाज मे रह रहे है जहां जातीय आधार पर आपको बैठने के लिए कुर्सी तक  नसीब नहीं होती वहाँ आरक्षण की समीक्षा का प्रश्न कितना जायज है,  यह सोचनीय है ?

ऐसा नहीं है कि वर्तमान सरकार ओबीसी के लिए कुछ सोच नहीं रही । उच्च शिक्षा (एम फिल पीएचडी ) के लिए सरकार नेशनल फ़ेलोशिप फॉर ओबीसी भी दे रही हैं । जिसकी कुल सख्या मात्र 300 है ।  जातीय जनसख्या के आधार पर यह संख्या नगण्य के बराबर ही मालूम देती है।

देश भर के कई शोध छात्रों, प्राध्यापकों से जब हमने ओबीसी आरक्षण संबंधी मुद्दे पर  राय ली तो वो भी आरक्षण के सही तरीके से पूर्ण न होने की बात स्वीकारते है ।

डॉ. सुनील कुमार सुमन, असिस्टेंट प्रोफेसर  हिन्दी विवि कोलकाता केंद्र

ओबीसी तबका भले ही अस्पृश्यता का शिकार नहीं रहा लेकिन सामाजिक-शैक्षणिक रूप से वह हमेशा से पिछड़ा रहा है। केंद्रीय मंत्रालय हो या देश के केंद्रीय विश्वविद्यालय, हर जगह ओबीसी का प्रतिनिधित्व दलित-आदिवासियों की तरह ही न्यूनतम है। बौद्धिक व आर्थिक-सामाजिक संसाधनों में इनकी भागीदारी बहुत कम है। जब तक सारे वर्गों-समुदायों की उपस्थिति हर क्षेत्र में नहीं हो जाती, तब तक न पूरा समाज आगे बढ़ सकता और न यह देश…और इसके लिए आरक्षण से बेहतर कोई संवैधानिक तरीका नहीं हो सकता है। आरक्षण राष्ट्र के सर्वांगिण विकास व निर्माण के लिए बहुत जरूरी साधन है।

संतोष  अर्श,  शोध छात्र, गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय

उच्च शिक्षा में ओबीसी बुरी तरह ग़ायब है। जो हैं भी वे एलिएनेट कर दिए गए हैं। ओबीसी को प्रोफ़ेसर और एसोसिएट प्रोफ़ेसर लेवल आरक्षण नहीं मिलता है। यह सरकार भी नहीं देगी स्पष्ट हो चुका है। JNU जैसे संस्थान में एक भी प्रोफ़ेसर ओबीसी कोटे से नहीं है यह भारत की आधे से अधिक ओबीसी आबादी के लिए निराशाजनक है। जो एकाध प्रोफ़ेसर हैं भी उन्हें सवर्ण वर्चस्व वाले माहौल में बुरी तरह प्रताड़ित किया जाता है। अभी हाल ही में गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉ. जय प्रकाश प्रधान को साज़िशन निलंबित कर दिया गया। इतना ही नहीं उन्हें पुलिस से उठवाकर उत्पीड़ित किया गया। ओबीसी समाज की इस स्थिति पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

डॉ.  संदीप सपकाले, असिस्टेंट प्रोफेसर हिन्दी विवि वर्धा

एलपीजी और मंडल कमीशन दोनों के आते ही इन दोनों का विरोध एक विशेष जाति वर्ग से उभर कर सामने आता हैं । ओबीसी समुदाय स्वयं अपने राजनीतिक सामाजिक अधिकारों को लेकर हमेशा ही भ्रमित  अवस्था में रहा हैं इसीलिए मंडल कमीशन के समर्थन और उसे पुरजोर लागू करने की लड़ाई आंबेडकरवादियों द्वारा लड़ी गयी जिसमें ओबीसी बनाम उच्च जातियों के संघर्ष के विपरीत दलित बनाम सभी सवर्ण जातियाँ हो गया । डॉ.सिंह ने जिस तरह आर्थिक विकास के लिए आवश्यक नई अर्थनीति को महत्वपूर्ण मानते हुए 90 में मुक्त अर्थव्यवस्था की नींव रखी थी उसी तरह प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने केंद्रीय विश्वविद्यालयों के अध्ययन अध्यापन में ओबीसी आरक्षण को लागू भी किया था ।

डॉ. वैभव सिंह, मार्क्सवादी चिंतक और असिस्टेंट प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय 

शैक्षणिक संस्थान किसी भी अन्य सरकारी संस्थान की तरह सामाजिक बराबरी की नीति से बंधे होते हैं। लेकिन भारत के अधिकांश उच्च शिक्षा संस्थान कहीं खुला तो कहीं प्रच्छन्न जातिवाद चलाते हैं। विडंबना यह है कि वहां पिछड़ी जातियों को समुचित प्रतिनिधित्व मिलने का काम अभी शुरू ही हुआ है कि उन्हीं संस्थानों पर निजीकरण और व्यवसायीकरण की तलवार लटकने लगी है। तरह-तरह की कटौतियां, स्वायत्ता का हनन और नौकरशाही का कसता शिकंजा उन्हें कमजोर बना रहा है। ऐसे में आरक्षण को भी लागू करने के लिए अधूरे व अनमने से प्रयास होते दिखते हैं। उच्चशिक्षा संस्थानों को अगर सचमुच अकादमिक गुणवत्ता, सामाजिक न्याय व पारदर्शी संस्थान के रूप में अपनी भूमिका को निभाना है तो उन्हें निजीकरण, भगवाकरण और बेढंगे व्यवसायीकरण से लंबा युद्ध लड़ना पड़ेगा।

डॉ. सुनील यादव

ओबीसी जनसँख्या के हिसाब से आरक्षण का डिस्ट्रिब्युसन अभी नहीं हो पाया है। ओबीसी में कुछ जातियां सामान्य वर्ग के करीब हैं तो कुछ एससी के करीब हैं। ये फासला बड़ा है इसलिए आबादी भी बड़ी है क्रीमीलेयर के प्रावधान के उपरांत इस 27 प्रतिशत आरक्षण के सीमा को भी बढ़ाने की जरूरत है। यादव कुर्मी और कोइरी जाति थोडा कम या अधिक बिहार और यूपी में अन्य ओबीसी जातियों से बेहतर स्थिति में हैं लेकिन इतनी बेहतर नहीं कि इन्हें आरक्षण के दायरे से बाहर कर दिया जाय। इसलिए ओबीसी के 27 प्रतिशत आरक्षण को बढाकर आबादी के अनुपात में कम से कम 50 प्रतिशत तक।ले जाना पड़ेगा फिर क्रीमीलेयर के अनुसार ओबीसी के अत्यधिक पिछड़ी जातियों को फायदा पहुँच पाएगा। या फिर एस सी आरक्षण के दायरे को बढाकार उसमें उतनी प्रतिशत एस सी के लगभग करीब ओबीसी जातियों को एस सी का आरक्षण दिया जाय। यह सोचने और बहस का मुद्दा है।

आलोक कुमार, शोध छात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय गुजरात

ओ.बी. सी. के आरक्षण के बारे मै सिर्फ यही कहना चाहूँगा कि जब से ओ.बी. सी. को आरक्षण मिला तब लोगो के सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक पहलुओ में काफी परिवर्तन आया है| ओ.बी. सी. के आरक्षण के स्तिथी वैसे ही है जैसेकि उट के मुह में जीरा | ओ.बी. सी. की जनसँख्या लगभग 60% है लेकिन इन्हें सिर्फ 27% आरक्षण दिया गया| केंद्रीय नौकरियों में सिर्फ १२% ही आरक्षण लागु हुआ| बाकी 18% कौन ले गया किसी को पता नहीं| मोहन भगवत जी कहते है कि आरक्षण की समीक्षा होनी चाहिए हम भी कहते है कि आरक्षण की इस बात की समीक्षा होनी चाहिए ओ.बी. सी. की 18% सीटो पर कौन कब्जा करके बैठा हुआ है उसकी जाँच होनी चाहिए और दोसियो को नौकरी से बर्खास्त करना चाहिए और उन्हें सीधे जेल भेजा जाना चाहिए|

डॉ. सतीश पावड़े, असिस्टेंट प्रोफेसर हिन्दी विवि वर्धा

देश में मण्डल कमीशन लागू होने के बाद से अब तक सभी सार्वजनिक क्षेत्रों में लागू आरक्षण के आंकड़ों को सरकार श्वेत पत्र के जरिये रख देगी तो सारा कुछ सामने आ जाएगा । इसके अलावा सरकारें जाति आधारित जनगणना से क्यो डरती है या फिर इसके पक्ष में न आने के पीछे भी कोई चाल है यह पहचान पाना अभी भी मुश्किल काम है ।

रजनीश कुमार अंबेडकर,  शोध छात्र हिन्दी विवि वर्धा

OBC प्रतिनिधित्व (आरक्षण) को लेकर वर्तमान समय में शैक्षणिक संस्थानों में जो स्थिति होना चाहिए था संविधान लागू होने के बाद से वो स्थिति पिछड़े वर्ग में दिखाई नहीं दे रही है. इसके पीछे मैं सिर्फ एक कारण मानता हूँ समाज के तथाकथित जिन लोगों को यह कार्य सौंपा गया. उसको सही से लागू न करके उल्टे रोकने का काम 40 वर्षों तक किया. मंडल रिपोर्ट के बाद उच्च शिक्षा में 27% ओबीसी आरक्षण 2006 में लागू किया गया. जिसके बाद से शैक्षणिक संस्थानों में कुछ स्थिति बेहतर देखने को मिल रही है. रही बात समीक्षा करने वालों से मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि अभी सही से इस वर्ग को प्रतिनिधित्व मिलना शुरू ही नहीं हुआ. सरकारी रिपोर्ट्स इस बात की गवाह है.

अंजली, शोध छात्रा जे एन यू

किसी नीति की समीक्षा करना तब सही ठहरता है जब उस नीति को धरातल पर उतारा गया हो |  ओ. बी. सी. आरक्षण/ प्रतिनिधित्व को धरातल पर उतारने के लिए जातिवार जनगणना की जरूरत है जिसे अब तक किसी भी केंद्र सरकार ने तवज्जो नहीं दी है |  इसके साथ ही ओ. बी. सी. रिजर्वेशन देश में जब से लागू हुआ है तब से अब तक उसका अनुपालन पूरी तरह से किसी भी सरकारी संस्थान और महकमें में नहीं किया गया है |  इसके लिए हम अलग-अलग विभागों (चाहे वह शैक्षणिक हो या अन्य) में सूचना के अधिकार के जरिए जुटाए गए आँकड़ों को भी देख सकते है कि कितने पदों पर ओ. बी. सी. आरक्षण को लागू किया गया है |  शिक्षा में जहाँ-तहाँ आज जब ओ. बी. सी. छात्र-छात्रा पढ़ रहे है और वे ओ. बी. सी आरक्षण लागू न करने की इस धांधली पर सवाल उठा रहे है तो उनको पढ़ने से वंचित करने के अलग-अलग हथकंडे अपनाए जा रहे है |  इसलिए बिना नीति के अनुपालन के समीक्षा करना कहीं भी सही नहीं ठहरता है |

मुलायम सिंह, छात्र नेता एवं शोध छात्र जे एन यू नई दिल्ली

1990 के बाद देश मे अलग अलग केंद्रीय संस्थानों में ओबीसी  आरक्षण मिलना शुरू हुआ लेकिन ऐसे क्या कारण रहें होने जिसकी वजह से उच्च शिक्षा में आरक्षण 2007 में दिये जाने की घोषणा होती है। उच्च शिक्षा में आरक्षण लागू न करने की पीछे इनकी ब्राह्मणवादी मानसिकता साफ साफ जाहिर होती है । मेरी नज़र में ओबीसी की अपनी विचार धारा को लेकर एकजुट न होना इसकी मुख्य वजह रही है। बीते कुछ सालों से एक बार फिर ओबीसी छात्रों ने इस ओर मीडिया और राजनीतिक रूप से अपना ध्यान खींचा है और अपनी लड़ाई सत्ता के विरुद्ध लड़ रहे है। उसी लड़ाई के नतीजे भी हमारे आपके सामने है जिसमे जेएनयू जैसे संस्थान में साक्षात्कार का वेटेज कम करने को लेकर लड़ी जा रही लड़ाई में 9 लोगो को सस्पेंड करना छात्रों का दमन नहीं तो और  क्या है ?

अशोक कुमार यादव, शोध छात्र हिन्दी विवि वर्धा

विशेष कर उत्तर प्रदेश की बात करें तो प्रदेश मे लोक सेवा आयोग हो या माध्यमिक शिक्षा चयन बोर्ड व अन्य और भी हो सकते हैं पर हम बात इन दोनो सेवाओं की ही कर रहे हैं जहां से अधिकारी और अध्यापक बन कर निकलते हैं यहां पर प्रारंभिक व मुख्य परीक्षा दोनों मे आरक्षण का उल्टा खेल चल रहा है मतलब 2000 हजार पदों पर यदि भर्ती होनी है तो जिसमे 1000 पद अनारक्षित होता है लेकिन शुरू के दोनो परीक्षाओं मे सिर्फ सामान्य वर्ग मतलब सवर्णों का चयन किया जाता है भले ही OBC,SC इनसे ज्यादा नं. लाये हो लेकिन उन्हें उनके कटेगरी मे ही रखा जाता है,  सपा की पूर्ण बहुमत सरकार जो त्रिस्तरीय  आरक्षण लागू करने के बाद आंदोलन के दबाव मे पीछे हट गयी,वही छत्तीसगढ़ मे इसे लागू किया गया जिसमे सुप्रीम कोर्ट का भी सहयोग मिला।

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