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है तमाशा ये क्या ! १ अगस्त : अण्णाभाऊ साठे जयंती

annbhau sathe

annabhau sathe

जहाँ आज की मीडिया प्रजातान्त्रिक हुकूमत के सामने रेंगती हुई पाई जाती है, जो किसी के शमशान की यात्रा को या तो अनेक रंगों से सबोरती है या अपना कैमरों में ही कफ़न लगा देती है, वो समय जहाँ सरकार कलाकारों से लेकर हर वो स्वतंत्रता के मंजर पर प्रतिबन्ध लगाने पे तुली हैं, अण्णाभाऊ की लोक तमाशा एक मार्गदर्शक के रूप में नजर आती है. उम्मीद है, उनके सड़क की साहित्य और कला इस प्रजातंत्र को बेहतर करती रहेगी.

अण्णाभाऊ साठे महाराष्ट्र के सांगली जिला के दलित मातंग समुदाय से थे. अपनी जाति और ग़रीबी के कारण वो बचपन में पढाई नहीं कर पाए. पढाई क्या नहीं कर पाए, जाति के भेदभाव स्कूल में उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ. फिर सुखे के कारण, ११ साल की उम्र में, उनका परिवार मुंबई के ब्य्कुल्ला के एक चोल में रहना लगा.

आण्णाभाऊ साठे मुंबई में दो चीजों की ओर आकर्षित हुए – एक अलग राजनीतिक संगठन था और दूसरा मूक फिल्में. फिल्मों और विज्ञापनों के पोस्टर जो गली गली में थे, उनसे उन्होंने अपने आप को पढाया. अपने कैरियर एक मिल मजदूर के रूप में शुरू किया, फिर मुंबई के तेज जीवन और धरना, बैठकों, सत्याग्रह और विरोध प्रदर्शन की रोमांचक राजनीतिक जीवन का अनुभव करने के बाद, वोे एक तमाशा मंडली में शामिल हो गए.

अण्णाभाऊ की तेज आवाज, याद करने के लिए अपनी क्षमता, हारमोनियम, तबला, ढोलकी, बुलबुल की तरह विभिन्न उपकरणों खेल में अपने कौशल, तमाशा की दुनिया में उन्हें स्टार बना दिया. क्यूंकि खुद वो बहुत कामों में मजदूरी किये थे इसलिए उनकी बातें और सोच हमेशा समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचती थी.

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन, संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन और गोवा मुक्ति आंदोलन के दौरान सामाजिक जागरण की ओर काफी योगदान दिया. कलाकार के रूप में हर कार्यक्रम और विरोध प्रदर्शन में भाग लिया. उनकी लावणी, पोवाडा लोक कला की पृष्ठभूमि थी और सड़क उनके साहित्य के लिए खेलता रहा.

1945 में साप्ताहिक लोकयुद्ध के लिए एक पत्रकार के रूप में काम करते हुए वह बेहद लोकप्रिय बने. आम आदमी के दुख के बारे में विशेष रूप से लेखन, एक लेखक के रूप में अन्न्भाव की अद्भुत सफलता के पीछे कारण है.

annabhau१ अगस्त २००२ में भारत सरकार ने उनके नाम का डाक टिकट निकाला.

इसी अखबार में काम करते वक़्त उन्होंने अक्लेची गोष्ट, खाप्र्या चोर, मजही मुंबई जैसे नाटक लिखे. १९५० से १९६२ के बीच उनके अनेक उपन्यास भी प्रकाशित हुए जिनमें वैजयंता, माक्दिचा माल, चिखालातिल कमल, वार्नेछा वाघा, फकीरा शामिल है. उनकी लाल बावटा (वामपंथी कला मंच) और तमाशा पे इसी वक़्त सरकार ने प्रतिबन्ध लगाया था, जिसके बाद वो इन्हें फोल्क गीत में तब्दील कर दिए, और प्रतिबन्ध के कोई मायने न रहे.

 

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